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'समणो अहं' कहकर मुनि इसी बात को ध्वनित करना चाहते हैं कि साधु को दुत्कार-सत्कार सब मिल सकता है और मैं समण हूं इसीलिए ही ये सब सहन कर रहा हूं। यहां मुनि ने समण शब्द का प्रयोग कर पश्चिम की अभिव्यजना पूर्व में की है तथा वाच्यार्थ के सहन करने के धर्म का अतिशय द्योतित हो रहा है।
पर्याय वक्रता
एक ही धर्म के द्योतक अनेक पर्यायवाची शब्दों में से रचनाकार किसी एक को चुन कर उक्ति में वक्रता या सौन्दर्य उत्पन्न कर देता है उसे पर्याय- वक्रता कहते हैं। यह शब्द शक्तिमूलक अनुकरणरूप पद-ध्वनि का आधार है।
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उत्तराध्ययन की निम्न गाथाओं में पर्याय वक्रता द्रष्टव्य है .
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आणानिद्देसकरे गुरुणमुववायकारए।
इंगियागारसंपन्ने से विणीए त्ति वुच्चई । उत्तर. १ / २
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जो गुरु की आज्ञा और निर्देश का पालन करता है, गुरु की शुश्रूषा करता है, गुरु के इंगित और आकार को जानता है, वह विनीत कहलाता है। यहां विनीत कौन? के प्रसंग में विनीत के पर्यायवाची निभृत, प्रश्रित में से विनीत शब्द अधिक औचित्यपूर्ण है। वि उपसर्गपूर्वक नीञ् प्रापणे धातु से क्त प्रत्यय लगकर निष्पन्न विनीत शब्द नम्र होना, विनय करना, आचरणशील, शासन किये जाने के योग्य आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है।
उद्दंडता जिससे कोशों दूर चली गई है, शासन करने के लिए सूत्र - अर्थ की वाचना देने के लिए गुरु जिसे पात्र समझता है, जिसका मन गुरु चरणों में पूर्णतया समर्पित है, मोक्षमार्ग की ओर कृत निश्चय है- इन अर्थों का प्रकटीकरण विनीत शब्द से संभव है, सुशील आदि से नहीं।
विनय के दो अर्थ हैं- आचार और नम्रता। इन दोनों अर्थों की समन्विति के लिए भी विनीत शब्द का सार्थक प्रयोग हुआ है।
इस गाथा से शिष्य की वीरता, मोक्ष साधकता एवं अहंकार - शून्यता प्रतिध्वनित हो रही है। क्लीव कभी आज्ञा का पालन नहीं करता। जो अपना
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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