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समणो अहं संजओ बंभयारी विरओ धणपयणपरिग्गहाओ । परप्पवित्तस्स उ भिक्खकाले अन्नस्स अट्ठा इहमाअगो मि ||
उत्तर. १२/९
प्रसंग उस समय का है जब यज्ञ हो रहा था वहां हरिकेशी मुनि भिक्षार्थ गये। ब्राह्मणों ने उनको दुत्कारा | शांत भाव से मुनि ने कहा- 'मैं श्रमण हूं।' यहां श्रमण के ही पर्यायवाची भिक्षु, तपस्वी, संन्यासी, साधु शब्दों का भी प्रयोग किया जा सकता था, 'समण' का ही क्यों?
इस संदर्भ में समण शब्द की मीमांसा चिन्तनीय है। समण शब्द के तीन रूप मिलते हैं १. श्रमण, २. समण, ३. शमन
श्रमण
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श्रमु तपसि खेदे च ' श्रमणः ' जो तपस्या करता है,
धातु से श्रमण शब्द निष्पन्न होता है। 'श्राम्यतीति श्रम करता है उसे श्रमण कहते हैं।
श्रमणः '
'श्राम्यतीति तपस्यतीति आत्मा के सहजगुण की प्राप्ति के लिए जो तपस्या करता है, व्रत धारण करता है, शरीर एवं रागादि को क्षीण करता है वह श्रमण है।
शमन
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शमु उपशमे धातु से णिच् + ल्युट् प्रत्य करने पर शमन शब्द बनता है। जिसका अर्थ है शमन करने वाला, दमन करने वाला, वशीभूत करने वाला।
समण
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सम्यक् मणे समणे जिसका मन सम्यक् है वह समण है। समिति - समतया शत्रुमित्रादिष्वणन्ति प्रवर्तन्त इति समणाः । सूत्रकृतांग हिन्दी टीका में समण को परिभाषित करते हुए कहा है- जो शत्रु एवं मित्र में समान रूप से प्रवृत्ति करता है, समान व्यवहार रखता है, समता भाव को धारण करता है वह समण है| १४ उत्तराध्ययन में कहा गया 'समयाए समणो होइ' (उत्तर.
२५/३२) समत्व का धारक ही समण है।
'तात्पर्य ‘समण' वही होता है जिसका मन सम्यक् है, जो लाभ
अलाभ, दुत्कार-सत्कार में सम रह सकता है।
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उत्तराध्ययन का शैली वैज्ञानिक अध्ययन
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