________________
रखते हैं। इनके ऊपर के जघन्य स्थितिवाले देवों का गतिसामर्थ्य इतना कम हो जाता है कि वे अधिक-से अधिक तीसरे नरक तक ही जा पाते हैं । शक्ति चाहे अधिक हो पर कोई देव तीसरे नरक से नीचे न गया है और न जायेगा ।२९ इस तरह से देवों की गति का वर्णन मिलता है। २. देवों की शरीरावगाहना :
उत्पत्ति के समय से लगातार प्रतिक्षण जो शीर्ण-जर्जरित होता है, वह शरीर है । शरीर के प्रमाण (ऊँचाई) को अवगाहना कहते हैं ।
शरीर के मुख्य ५ प्रकार हैं-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
देवों का वैक्रिय शरीर होता हैं । जिस शरीर के द्वारा विविध, विशिष्ट या विलक्षण क्रियाएँ हों, वह वैक्रिय शरीर कहलाता है । जो शरीर एक होता हुआ, अनेक बन जाता है, अनेक होता हुआ, एक हो जाता है, छोटे से बड़ा और बड़े से छोटा, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर हो जाता है, तथा दृश्य होता हुआ अदृश्य और अदृश्य होता हुआ दृश्य बन जाता है, इत्यादि विलक्षण लक्षण वाला पारे के सदृश शरीर वैक्रिय है ।
विक्रिया दो प्रकार की होती है—१) भवधारणीय वैक्रिय, २) उत्तर वैक्रिय ।
जो जन्म से ही प्राप्त होता है उसे भवधारणीय वैक्रिय शरीर कहते है । और स्वेच्छानुसार जिस में नाना आकृतियोंका निर्माण किया जाता है उसे उत्तरवैक्रिय शरीर कहते हैं ।३०
देवों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रियशरीरों का जघन्य, उत्कृष्ट, शरीरावगाहना की तालिका प्रज्ञापना सूत्र में निम्न प्रकार से हैवैक्रिय शरीरके प्रकार भावधारणीया-शरीरावगाहना उत्तरवैक्रिय-शरीरावगाहना
ज.उ.
ज.उ.
१. समस्त भवनपति देवों
ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, ज. अंगुल के असंख्यातवें भाग, उ. ७ हाथ की।
उ. १ लाख योजन। ज. अंगुल के संख्यातवें भाग, उ. १ लाख योजन।
२. समस्त वाणव्यन्तर
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org