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१) एक रूप की विकुर्वणा, २) बहुत रूपों की विकुर्वणा ।
एक रूप की विकुर्वणा
जो यह विकुर्वणा करते है, वे एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्दिय तक के रूप बना सकते हैं । बहुत रूपों की विकुर्वणा
जो यह विकुर्वणा करते है, वे बहुत सारे एकेन्द्रिय रूपों से पंचेन्द्रिय रूपों की विकुर्वणा कर सकते हैं ।
देव संख्यात अथवा असंख्यात, (एक समान) या भिन्न-भिन्न और संबद्ध (आत्मप्रदेशों से समवेत)असंबद्ध (आत्मप्रदेशो से भिन्न) नाना रूप बनाकर इच्छानुसार कार्य करते हैं ।
यह सौधर्म देव से अच्युत देवों तक समझना चाहिए ।
ग्रैवेयक देव और अनुत्तर विमानों के देव ने उपरोक्त दोनों विकुर्वणा न तो पहले कभी की है, न वर्तमान में करते हैं और न भविष्य में कभी करेंगे । (क्योंकि वे उत्तरविक्रिया करने की शक्ति से सम्पन्न होने पर भी प्रयोजन के अभाव तथा प्रकृति की उपशान्तता से विक्रिया नहीं करते ।२३
इस प्रकार देवों की विकुर्वणा का यहाँ विवेचन किया गया है । समुद्घात :1
"समुद्घात" जैन शास्त्रों का पारिभाषिक शब्द है । इसका अर्थ है
वेदना आदि के साथ एकरूप होकर वेदनीयादि कर्मदलिकों का प्रबलता के साथ घात करना समुद्घात कहलाता है ।
__समुद्घात के सात प्रकार हैं । उसी में से देवों के पांच प्रकार के समुद्घात होते हैं
१) वेदना समुद्घात, २) कषाय समुद्घात, ३) मारणान्तिक समुद्घात, ४) वैकिय समुद्घात, और ५) तेजस समुद्घात । इसी प्रकार अच्युत देवलोक तक पांच समुद्घात होते हैं । ग्रैवेयक देवों के आदि के प्रथम तीन समुद्घात होते
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