________________
का बाहल्य २०,००० योजन प्रमाण है । उसके बहुमध्य भाग में चांदी, एवं सुवर्ण के सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है । यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश या ऊँधे कटोरे के सदृश आकार से सुंदर और ४५,००,००० योजन (मनुष्य क्षेत्र) प्रमाण विस्तार से संयुक्त है । उसका मध्य बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है, उसके आगे घटते घटते अंत में एक अंगुल मात्र । अष्टमभूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिघि के समान
उस आठवीं पृथिवी के ऊपर ७०५० धनुष जाकर सिद्धों का आवास है । इस आवास क्षेत्र का प्रमाण (क्षेत्रफल) है
८४०४७४०८१५६२५ योजन ।३८
जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख संज्ञा और रोगादि नहीं होते, वह मोक्ष (सिद्धगति) कहलाती है ।३९
शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यन्तिक निवृत्ति द्रव्यमोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भावमोक्ष है । यह मोक्ष मनुष्य गति से ही संभव है, अन्य नरक, तिर्यञ्च, देव गति से नहीं । अंतिम भव (जीवन) में मुक्त जीव स्वाभाविक उर्ध्वगति से लोक के शिखर पर जा विराजते हैं । पुनः जन्म-मरण के चक्र में नहीं पड़ते । ज्ञान ही उनका शरीर होता है । जैन परंपरानुसार जितने जीव मुक्त होते हैं, उतने ही निगोद राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते
मोक्ष का तुलनात्मक अध्ययन :
भारतीय दर्शन के अन्तर्गत सर्व दर्शनों ने मोक्ष को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया ही है । मोक्षावस्था पूर्व उसी भव में जीवन्मुक्त अवस्था को पूर्वभूमिका के रूप में मान्य किया है । यदि जीवन्मुक्तावस्था नहीं है तो विदेह मुक्ति अथवा मोक्ष भी संभव नहीं। तात्पर्य यह है कि जीवन्मुक्तता मोक्ष की अनिवार्य शर्त है । यह जीवन्मुक्ति जिस जीव का अन्तःकरण धुल गया हो, वासनाएँ न हो, वीतराग-वीतद्वेष हो उसको देह की विद्यमानता में ही होती है । यह ज्ञान की चरमावस्था भी है । हर्ष-शोक से परे, निरतिशय आंनद के अनुभव
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org