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में उत्पन्न, अकर्मभूमि में उत्पन्न तथा ५६ अन्तद्वीपों में उत्पन्न । पाँच भरत, पाँच ऐरावत एवं पाँच महाविदेह ये १५ कर्मभूमियाँ मानी गई हैं । अकर्मभूमि के ३० भेद हैं- ५ हैमवत, ५ हैरण्यवत, ५ हरिवर्ष; ५ रम्यक् वर्ष, ५, देवकूरू एवं ५ उत्तर कुरू । गर्भज मनुष्य पर्याप्तक एवं अपर्याप्तक दोनों प्रकार का होता है, जबकि सम्मूच्छिम मनुष्य मात्र अपर्याप्तक ही होता है ।
१५+३०+५६=१०१ भेद मनुष्य गति के है । कुल ३०३ भेद होते हैं ।
गर्भज-शुक एवं शोणित के संगम से भी गर्भ धारण करती है, वहाँ जन्म पानेवाला जीव गर्भज कहलाता है । स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करने से पहले मरनेवाले अपर्याप्त कहलाते हैं, पूर्ण करके मरनेवाले पर्याप्त कहलाते हैं । देवमति :
अति पुण्य प्रभाव से जीव देवगति में उत्पन्न होते हैं । देव पुण्य शय्या में उत्पन्न होकर अंतर्मुहूर्त में देवकाया का निर्माण कर लेते हैं । जब तक पर्याप्ति पूर्ण न करें, तब तक 'अपर्याप्त' कहलाते हैं और पर्याप्ति पूर्ण हो जैने पर 'पर्याप्ता' माने जाते हैं । देवों के ९९ भेद अपर्याप्ता और ९९ भेद पर्याप्ता के,कुल १९८ भेद होते हैं । जो निम्नानुसार हैं-५ अनुत्तर, ९ ग्रैवेयक, १२ वैमानिक, ९ लोकान्तिक, ३ किल्बिषिक, ५ चर ज्योतिष, ५, स्थिर ज्योतिष; ८ वाणव्यंतर, ८ व्यंतर, १५ परमाधामी, १० भवनपति और १० तिर्यक् जुंभक । इस तरह ९९ पर्याप्ता + ९९ अपर्याप्ता = १९८ भेद माने गए हैं । देवियों की उत्पत्ति दूसरे देवलोक तक होती है। परंतु ये देविया ८ वें देवलोक तक गमनागमन कर सकती हैं । उत्तरोत्तर देवलोक में सुख की मात्रा अधिक और विषय वासना कम होती है। उनका शरीर प्रमाण एक हाथ से सात हाथ तक होता हैं ।
देव तीन कारणों से विद्युत्प्रकाश एवं मेघगर्जना जैसी ध्वनि करते हैं :१. वैक्रिय रूप करते हुए, २. परिचारणा करते हुए एवं ३. श्रमण-माहण के समक्ष अपनी ऋद्धि, द्युति, यश, बल, वीर्य, पुरुषकार एवं पराक्रम का प्रदर्शन करने के लिए । देवेन्द्र देवराज शक वृष्टिकायिक देवों के माध्यम से वर्षा करने का कार्य भी करता है ।
एक अपेक्षा से देव दो प्रकार के होते हैं-१. मायी मिथ्यादृष्टी; २. अमायी सम्यग्दृष्टि । मायी मिथ्यादृष्टि उपपन्नक देव भावितात्मा अनगार को देखकर भी उन्हें वन्दन-नमस्कार एवं सत्कार-सम्मान नहीं देता । वह भावितात्मा अनगार के मध्य
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