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की जिंदगी में मनुष्य लग्न नहीं करता किंतु स्वर्ग के फरिश्ते के समान जीवन व्यतीत करता है । ईसाई का स्वर्ग एक स्थान के रूप में वर्णित किया गया है । फिर भी 'नया करार में स्वर्ग एक स्थान विशेष ही नहीं अपितु एक उच्च आत्मिक स्थिती हो ऐसा महसूस होता है । जो कि पवित्र मन धारण करेंगें, वे स्वर्ग में दिव्य सौंदर्य दर्शन निहार कर अवर्णनीय आनंद भोगेगे । मेथ्यु के भागवत के १८ वें प्रकरण के १० वें श्लोक में कथन है कि - महात्मा ईशु छोटे बालकों की स्तुति करते हुए कहते हैं कि स्वर्ग में उनके फिरश्ते मेरे पिता प्रभु का मुख सदा निहारते हैं ।
इससे यह विदित होता की ईसाई धर्म श्रेय और नीति को बुद्धि की अपेक्षा श्रेष्ठ मान्य करते हैं । और स्वर्ग के फरिश्ते प्रभु को निर्मल बुद्धि रूप में नहीं परंतु परम पवित्रता के रूप में पूजते हैं । स्वर्ग में प्रभु की भक्ति सतत चालू रहती है ।
इसके अतिरिक्त मि. हेरिस के मतानुसार स्वर्ग का दिव्य सौंदर्य दर्शन प्लेटो द्वारा कल्पित आदर्शमूर्ति विचारों से बहुत साम्य रखता है । प्रभु का स्वर्ग में होने वाला सतत चिंतन वह वस्तुतः एक महान् विचार पर होने वाले मनन जैसा ही है । उनका कथन है कि जब स्वर्गवासी आत्मा प्रभु में विलीन होता है, तब उसकी बुद्धि का भी अत्यन्त विकास होता है ।
इस मत में यह स्वीकार किया गया है कि स्वर्ग की प्राप्ति मनुष्य को उसके गुण और पुण्य के कारण नहीं होती वरन् प्रभु की मर्जी और कृपा से ही होती है । जबकि जैन मत में इसके विपरीत स्वर्ग की प्राप्ति में जीव के गुण एवं पुण्य कर्म ही प्रधान कारण है ।
ईसाई धर्म में जावेदान के स्वर्ग और नरक के विषय में वर्णन किया गया है । मेथ्यु २५, २६ में अनंत जीवन अर्थात् जावेदान के स्वर्ग विषयक संकेत है । और पुण्यशाली आत्माओं का वह धाम होगा, ऐसा उल्लेख है । ऐसा ही संकेत रोमन्स २, ७, और ५, २१ में भी है । रोमन्स में स्पष्टतः लिखा है कि पाप का बदला मौत तो है, परंतु ईश्वरीय कृपा यह अपने स्वामी ईशु द्वारा प्राप्त सनातन जीवन है । इसी प्रकार मेथ्यु २५, ४१ के अनुसार जो सवाबी कार्य नहीं करते वे शैतान और इसके इतों के लिये जो हमेंशा के लिये नरक की अग्नि तैयार की गई है, उसमें पडेंगे । इस अग्नि के विषय में मेथ्यु १८, ८ और मार्क
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