SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७८ व्यन्तर निकाय के देवों के आठ प्रकार हैं-किन्नर, किंपुरूष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । ज्योतिष्क देवों के पाँच प्रकार हैं-सूर्य, चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, प्रकीर्ण तारा । वैमानिक देव-निकाय के दो भेद हैं-कल्पोपपन्न, कल्पातीत । कल्पोपपन्न के बारह भेद हैं-सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुकर, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण तथा अच्युत । एक मत सोलह भेद६६ स्वीकार करता है। कल्पातीत वैमानिकों में नव ग्रैवयक और पाँच अनुत्तर विमानों का समावेश है । नव ग्रैवेयक के नाम :- सुदर्शन, सुप्रतिबद्ध, मनोरम, सर्वभद्र, सुविशाल, सुमनस, सौमनस, प्रियंकर, आदित्य । पाँच अनुत्तर विमानों के नाम ये हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त अपराजित सर्वार्थसिद्धि । इन सब देवों की स्थिति, भोग, सम्पत्ति, आदि का विस्तृत वर्णन प्रकरण ३ में किया है। जैन-मत में सात नरक माने है-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा तथा महातमःप्रभा । ये सातों नरक उत्तरोत्तर नीचे-नीचे हैं और विस्तार में भी अधिक है । उनमें दुःख ही दुःख है । नारक परस्पर तो दुःख उत्पन्न करते ही है, इसके अतिरिक्त संक्लिष्ट असुर भी प्रथम तीन नरक भूमियों में दुःख देते हैं । नरक का विशद वर्णन प्रकरण ४ में दिया गया है ।। ईसाई धर्म के अंतर्गत प्लेटो और अरस्तु जैसे ग्रीक दार्शनिक यह स्वीकार करते है कि मृत्यु के पश्चात् भी जीवात्मा का अस्तित्व होता है, और उसके अनुसार स्थूल वातावरण मीनोई जहान में होती हैं । . वे यह स्वीकार करते हैं कि स्वर्ग इन्द्रियों को संतोष हो, ऐसा होता है । फिर भी वे विषयी या विलासी नहीं होते । वहाँ पहुँचने पर मनुष्य में पशुता रह नहीं सकती। मनुष्य वहा जा कर पूर्ण मनुष्यत्व को प्राप्त करता है । मार्क १२, २५ में स्वयं ईसा अपने प्र-कर्ताओं को जवाब देते हैं कि मृत्यु के पश्चात् Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002570
Book TitleJain Agamo me Swarg Narak ki Vibhavana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemrekhashreeji
PublisherVichakshan Prakashan Trust
Publication Year2005
Total Pages324
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & agam_related_other_literature
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy