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रहा है।
जैन धर्म में जैसे स्वर्ग-नरक की कल्पना है। उसी प्रकार अन्य धर्मों में स्वर्ग-नरक की कल्पना देखेगें । स्वर्ग और नरक ये दोनों जीव के मृत्यु के बाद का लोक । मृत्युपरान्त जीव की जो विविध गतियाँ होती हैं, उनमें देव, प्रेत, और नारक ये तीनों अप्रत्यक्ष हैं । वैदिकों, जैनों और बौद्धों की देव, प्रेत एवं नारकियों संबंधी कल्पनाओं का यहाँ निरूपण किया जाएगा । मनुष्य और तिर्यञ्च योनियाँ तो सबको प्रत्यक्ष हैं, अतः इनके विषय में विशेष विचार करने की आवश्यकता नहीं रहती । भिन्न-भिन्न परंपराओं में इस संबंध में जो वर्गीकरण किया गया है, उसका उल्लेख इस प्रकरण में करेगें ।
स्वर्ग-नरक ये परलोक की परिकल्पना है । कर्म और परलोक विचार ये दोनों परस्पर इस प्रकार सम्बन्धित है कि, एक के अभाव में दूसरे की संभावना नहीं । जब तक कर्म का अर्थ केवल प्रत्यक्ष क्रिया ही किया जाता था, तब तक उसका फल भी प्रत्यक्ष ही समझा जाता था । जिस तरह बालक पूर्वजन्म के संस्कार अथवा कर्म अपने साथ लेकर आता है, अतः इस जन्म में कोई कर्म न करने पर भी वह सुख-दुःख का भागी बनता है । इस कल्पना के बल पर प्राचीन काल से लेकर आज तक के धार्मिक गिने जाने वाले पुरुषों ने अपने सदाचार में निष्ठा और दुराचार की हेयता स्वीकार की है । उन्होंने मृत्यु के साथ ही जीवन का अंत नहीं माना, किन्तु जन्म-जन्मान्तर की कल्पना कर इस आशा से सदाचार में निष्ठा स्थिर रखी है कि, कृत-कर्म का फल कभी तो मिलेगा ही, और उन्होंने परलोक के विषय भिन्न-भिन्न कल्पनाएँ की हैं ।
वैदिक-परंपरा में देवलोक और देवों की कल्पना प्राचीन है, किन्तु वेदों मे इस कल्पना को बहुत समय बाद स्थान मिला कि देवलोक मनुष्य की मृत्यु के बाद का परलोक है । नरक और नारकों संबंधी कल्पना तो वेद में सर्वथा अस्पष्ट है । विद्वानों ने यह बात स्वीकार की है कि, वैदिकों ने परलोक एवं पुनर्जन्म की जो कल्पना की है, उसका कारण वेद-बाह्य प्रभाव है ।
___जैनों ने जिस प्रकार कर्म-विद्या को एक शास्त्र का रूप दिया, उसी प्रकार इस विद्या से अविच्छिन्नरूपेण सम्बन्धित परलोक-विद्या को भी शास्त्र का रूप प्रदान किया । यही कारण है कि जैनों की देव एवं नारक सम्बन्धी कल्पना में व्यवस्था और एक-सूत्रता है। आगम से लेकर आज तक के रचित जैन-साहित्य
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