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जो समूच्छिम जीव में से आकर उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं । ये रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होतेहैं, अन्य नरकों में नहीं । क्योंकि अविचारपूर्वक जो अशुभ क्रिया की जाती है, उसका इतना ही फल कहा है कि
असंज्ञी जीव-पहली नरक तक, सरीसृप-दूसरी नरक तक, पक्षी-तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग (सर्पादि) पाँचवीं नरक तक स्त्री, छठी नरक तक, मनुष्य एवं मच्छ-सातवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं ।
१४. वेद-नैरयिक नपुंसक ही होते हैं ।
१५. पर्याप्ति-नैरयिक में छ पर्याप्ति और अपर्याप्तियाँ होती हैं । भाषा और मन की एकत्व विवक्षा है ।
१६. दृष्टि-नारक के जीवों में तीनों ही दृष्टि होती है-मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि ।
१७. दर्शन-नैरयिकों में चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन ये तीनों दर्शन होते हैं ।
१८. ज्ञान-नैरयिक ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही होते हैं । जो ज्ञानी हैं, वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी होते हैं । जो अज्ञानी है, वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं ।
जो नैरयिक असंज्ञी हैं वे अपर्याप्त अवस्था में दो अज्ञान वाले और पर्याप्त अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं । संज्ञी नारक दोनों ही अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं।
१९. उपपात- नारक जीव असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचो और मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते है । शेष जीवस्थानों से नहीं ।
२०. नारकों की स्थिति (आयुष्य)-प्रत्येक गति के जीवों की स्थिति (आयुमर्यादा) जघन्य और उत्कृष्ट दो प्रकार की होती है। जिससे कम न हो वह जघन्य और जिससे अधिक न हो वह उत्कृष्ट स्थिति कही जाती है । यहाँ नारकों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का निर्देश है ।
जीवाजीवाभिगम सूत्र में स्थिति का उल्लेख है कि
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