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हावभाव, पारस्परिक आलाप-संलाप इत्यादि सभी कार्य-कलाप नैपुण्य और लालित्ययुक्त थे । उनका संस्पर्श शिरीष पुष्प और नवनीत-मक्खन जैसा मृदुल तथा कोमल था । वे निष्कलुष, निर्मल, सौम्य, कमनीय, प्रियदर्शन-देखने में प्रिय या सुभग तथा सुरूप थीं । वे भगवान् के दर्शन की उत्कण्ठा से हर्षित-रोमांचित थीं । उनमें वे सब विशेषताएँ थीं, जो देवताओं में होती हैं ।१८५
विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक विजयदेव विजया राजधानी की उपपात सभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न होता है । विजयदेव के उत्पन्न होते ही पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण होते
पर्याप्तियां निम्न प्रकार हैं
१) आहार पर्याप्ति, २) शरीरपर्याप्ति, ३) इन्द्रियपर्याप्ति, ४) आनप्राण पर्याप्ति, और ५) भाषा मन पर्याप्ति ।२८२
तदनन्तर विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न होता है-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयकर है, पश्चात क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिए पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयसकारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा । वह इस प्रकार चिन्तन करता है ।
उसके बाद उपरोक्त चिंतन विजयदेव का पूर्ण होने पर सामानिक परिषदा के देव जिस ओर विजयदेव होते है उस जगह आकर विजयदेव को हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं । बधाकर वे इस प्रकार बोलते-है देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत-सी जिन-अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहनेवाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं । यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर है, पश्चात् भी श्रेयस्कर है, यह आप
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