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सूर्याभदेव द्वारा विमान निर्माण का आदेश सूर्याभदेव ने अपने आभियोगिक देवों को बुलाकर कहा
हे देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही अनेक सौकड़ो स्तम्भों पर संनिविष्ट - बने हुए एक यान-विमान की विकुर्वणा-रचना करो । जिसमें स्थान-स्थान पर हावभाव विलास लीलायुक्त अनेक पुतलियां स्थापित हों । ईहामृग, वृषभ, तुरंग, नर (मनुष्य), मगर, विहग (पक्षी), सर्प, किन्नर, रूरू (मृगों की एक जाति विशेषबारहसिंगा अथवा कस्तूरीमृग), सरभ (अष्टपाद) चमरी गाय, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र चित्रित हों । जो स्तम्भों पर बनी वज्र रत्नों की वेदिका से युक्त होने के कारण रमणीय दिखलाई दे । समश्रेणी में स्थित विद्याधरों के युगल यंत्रचालित जैसे दिखलाई दे । हजारो किरणों से व्याप्त एवं हजारों रूपको चित्रों से युक्त होने से जो देदीप्यमान और अतीव देदीप्यमान जैसे प्रतीत हो । देखते ही दर्शकों के नयन जिसमें चिपक जायें । जिसका स्पर्श सुखप्रद और रूप शोभा - सम्पन्न हो । हिलने डुलने पर जिसमें लगी हुई घंटवलि से मधुर और मनोहर शब्द-ध्वनि हो रही हो । जो वास्तुकला से युक्त होने के कारण शुभ कान्त-कमनीय और दर्शनीय हो । निपुण शिल्पिप्यों द्वारा निर्मित, देदीप्यमान मणियों और रत्नों के धुंघरुओं से व्याप्त हो, एक लाख योजन विस्तार वाले हो । दिव्य तीव्रगति से चलने की शक्ति-सामर्थ्य सम्पन्न एवं शीघ्रगामी हो । इस प्रकार के यान-विमान की विकुर्वणा-रचना करने का आदेश दिया ।१६१
__ आभियोगिक देवों द्वारा विमानरचना विमान रचना के लिए प्रवृत्त होने के बाद सर्व प्रथम आभियोगिक देवों ने उस दिव्ययान-विमान की तीन दिशाओं-पूर्व, दक्षिण और उत्तर में विशिष्ट रूप-शोभासंपन्न तीन सोपानों (सीढ़ियों) वाली तीन सोपान पंक्तियों की रचना की । वे रूपशोभा संपन्न सोपान पंक्तियां इस प्रकार की थीं
इनकी नेम (भूमि से ऊपर निकला प्रदेश, वेदिका) वज्ररत्नों से बनी हुई थी । रिष्ट रत्नमय इनके प्रतिष्ठान (पैर रखने को स्थान) और वैडूर्य रत्नमय स्तम्भ थे । स्वर्ण-रजत मय फलक (पाटिये) थे । लोहिताक्ष रत्नमयी इनमें सूचियाँ-कीले लगी थीं । वज्ररत्नों से इनकी संधियां (सांधे) भरी हुई थीं । चढने-उतरने में अवलंबन के अनेक प्रकार के मणिरत्नों से बनी इनकी अवलंबनवाहा थीं तथा ये
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