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मृदंग एवं दुर्बुभि आदि के निघोष के साथ अपने-अपने परिवार सहित अपनेअपने यान-विमानों में बैठकर बिना विलंब के-अविलंब तत्काल सूर्याभ-देव के समक्ष उपस्थित हो जाओ । इस प्रकार की घोषणा अनीकाधिपति ने करी ।।
अधिक से अधिक बारह योजन की दूरी से आया हुआ शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जा सकता है । मगर सूर्याभ विमान तो एक लाख योजन विस्तार वाला है । ऐसी स्थिति में घण्टा का शब्द सर्वत्र कैसे सुनाई दिया ? इस प्रश् का समाधान मूलपाठ के अनुसार ही यह है कि घंट के ताड़न करने पर उत्पन्न हुए शब्द पुदगलों के इधर-उधर टकराने से तथा दैवी प्रभाव से, लाखों प्रतिध्वनियाँ उत्पन्न हो गई ।५९
देवों का औचित्य औचित्य अर्थात दृष्टिकोण ।
सूर्याभदेव की आज्ञा को सुनकर सूर्याभविमानवासी कितने देव-देवियां वन्दना करने के विचार से, कितने पर्युपासना करने की आकांक्षा से, कितने ही सत्कार करने की भावना से, कितने ही सम्मान करने की इच्छा से, कितने ही जिनेन्द्र भगवान के प्रति कुतुहलजनित भक्ति-अनुराग से, कितने ही सूर्याभ देव की आज्ञा पालन करने के लिए, कितने ही अश्रुतपूर्व (जिसको पहले नहीं सुना) को सुनने की उत्सुकता से, कितने ही सुने हुए अर्थविषयक शंकाओं का समाधान करके निःशंक होने के अभिप्राय से, कितने ही एक दूसरे का अनुसरण करते हुए, कितने ही जिन-भक्ति के अनुराग से, कितने ही अपना धर्म (कर्तव्य) मानकर और कितने ही अपना परम्परागत व्यवहार समझकर, सर्व ऋद्धि के साथ बिना किसी विलम्ब के तत्काल सूर्याभदेव के समक्ष उपस्थित हो गये ।
यहाँ मानवीय रुचि की विविधरूपता का चित्रण किया गया है, कि कार्य के एक समान होने पर भी प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने दृष्टिकोण के अनुसार उसमें प्रवृत्त होता है। लोक विभिन्न रूचि वाले है । वैसे ही देवों में भी विभिन्न रूचि वाले होते हैं ।
___ जैन सिद्धान्त के अनुसार इस प्रकृति-स्वभाव-जन्य विविधता का कारण कर्म है-'कर्मजं लोकवैचित्र्यं तत्स्वभावानुकारणम् । १६०
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