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श्रमण संप्रदाय की शाखाएँ और प्रतिशाखाएँ अनेक थीं, जिनमें सांख्य, जैन, बौद्ध, आजीवक आदि भी समाविष्ट होते थे । अन्य शाखाएँ तो शनैः शनैः वेदमूलक हो गई किन्तु जैन और बौद्ध इनसे अछूती रहीं । ऋषभदेव, पार्श्वनाथ और अंतिम तीर्थंकर महावीर जो परंपरा के थे वह परंपरा आगे चलकर निर्ग्रन्थ नाम से प्रसिद्ध हुई । श्रमण परंपरा में जीवनमुक्त मुख्य धर्मप्रणेता को-धर्म-प्रवर्तक को 'जिन' कहा जाता था । वैसे जिन भी अनेक हुए हैं— सच्चक, बुद्ध, गोशालक और महावीर । किंतु आज जिन कथित जैन धर्म कहने से मुख्यतया निर्ग्रथ धर्म अथवा भगवान महावीर जिसके अंतिम तीर्थंकर थे वही धर्म का ही बोध होता है, जो रागद्वेष के विजय पर ही मुख्यतया बल देता है । जैनधर्म श्रमणधर्म भी है और निर्ग्रन्थ धर्म जितना प्राचीन है ।
इस प्रकार ऋषभदेव से महावीर तक जैन धर्म की इस ऐतिहासिक परंपरा से स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म रहा है और उसने व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और विश्व की दृष्टि से जो सिद्धान्त प्रतिपादित किये हैं वे आज भी उतने ही प्रासंगिक और उपयोगी है जितने उस समय थे ।
प्राचीनता के साथ से काल और कालचक्र किसे कहते है उसके भेद कितने ? उसमें तीर्थंकर जन्म कब होता है ? यह अब देखेंगे ।
काल :
जिसका कार्य नये को पुराना बनाना है उसे काल कहते हैं । वर्तमानभूत-भविष्य काल, बाल्यकाल, यौवन काल आदि इसके पर्याय हैं । किसी भी पदार्थ के बनने के समय का पता काल से लगता है अथवा कोई चीज कब बनी थी, कब बनी है या बनेगी इत्यादि का ठोस ज्ञान काल से प्राप्त होता है ।
कालचक्र :
कालचक्र की चर्चा अर्धमागधी जैन आगम साहित्य में उत्सर्पिणी काल और अवसर्पिणी काल के रूप में भी उपलब्ध होती है । जिस तरह घडी के बारह अंको में से ६ पूर्व दिशा में और ६ पश्चिम दिशा में विभाजित होने पर घडी के दो भाग स्पष्ट दिखते हैं । उसी तरह कालचक्र को भी पूर्वार्ध के ६ और पश्चिमार्ध के ६ विभागों में विभाजित करने पर उस प्रत्येक विभाग को 'आरा' (काल-खण्ड) कहा जाता है । कालचक्र के प्रमुख दो विभाग होते हैं ।
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