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१६. विशेष नाम वाले विमान 'विमान' शब्द की व्युत्पत्ति है वि-विशेषरूप से पुण्यशाली जीवों के द्वारा मन्यन्ते-तद्गत सुखों का अनुभव किया जाता है जहां वह विमान हैं ।१४९
विमानों के नामों में प्रथम स्वस्तिक नामवाले; स्वस्तिकावर्त नामवाले, स्वस्तिकप्रभ, स्वस्तिक-कान्त, स्वस्तिकवर्ण, स्वस्तिकलेश्य, स्वस्तिकध्वज, स्वस्तिकभंगार, स्वस्तिककूट, स्वस्तिकशिष्ट और स्वस्तिकोत्तरावतंसक नामक विमान कहे गये हैं । जब कि मलयगिरि ने पहले अर्चि, अचिरावर्त आदि पाठ मानकर व्याख्या की है ।१५० उन्होंने स्वस्तिक, स्वस्तिकावर्त आदि नामों का उल्लेख दूसरे नम्बर पर किया है । इस प्रकार क्रम में अन्तर है।
विमानों की विशालता को बताने के लिए देवों के दृष्टांत से बताया गया है । जैसे कोई देव सर्वोत्कृष्ट दिन में जितने क्षेत्र में सूर्य उदित होता है और जितने क्षेत्र में वह अस्त होता है इतने क्षेत्र को अवकाशान्तर कहा जाता है ऐसे तीन अवकाशान्तर जितने क्षेत्र को वह देव एक पदन्यास से पार कर लेता है । इस प्रकार की उत्कृष्ट, त्वरित और दिव्यगति से लगातार एक दिन, दो दिन और उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो वह किसी विमान के पार पहुंच जाता है और किसी विमान को पार नहीं कर सकता है । इतने बड़े वे विमान हैं ।
जम्बूद्वीप में सर्वोत्कृष्ट दिन में कर्कसंक्रान्ति के प्रथम दिन में सूर्य सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन और एक योजन के ? भाग (इक्कीस साठिया भाग) जितनी दूरी से उदित होता हुआ दिखता है ।५१ ४७२६३११ योजन उसका उदयक्षेत्र है और इतना ही उसका अस्तक्षेत्र है । उदयक्षेत्र और अस्तक्षेत्र मिलकर ९४५२६४२. योजन क्षेत्र का परिमाण होता है । यह एक अवकाशान्तर का परिमाण है। यहा ऐसे तीन अवकाशान्तर होने से उसका परिमाण अट्ठाईस लाख तीन हजार पांच सौ योजन और एक योजन के ६. भाग (२८,०३,५८० ६.) इतना उस देव के एक पदन्यास का परिमाण होता है ।
अचिः अचिरावर्त आदि की विशालता भी इसी के समान है। अन्तर यह है कि यहाँ पाँच अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण है।
काम, कामावर्त आदि विमानों की विशालता केवल देव के पदन्यास का प्रमाण सात अवकाशान्तर के समान है ।
विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजितों के विमानों की विशालता में अन्तर यह हैं कि यहाँ नौ अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास के प्रमाण के समान है ।५२
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