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इन विमानों की चारो दिशा में क्रमश: त्रिकोण-चतुष्कोण-वृत्त-त्रिकोणचतुष्कोणवृत्त इस रीति से विमानों की श्रेणी होती है । इस कारण इन श्रेणी का विभाजन करके उपर्युक्त संख्या दी गयी है। ११. लोकान्तिक देव लोकान्तिक देवों का स्वरूप :
लोक अर्थात् जन्म-जरा-मरण रूप संसार । उसका अंत जिन्होंने किया है, वह लोकान्तिक । क्योंकि इन देवों ने कर्मक्षय का अभ्यास किया हुआ है । वे अब मनुष्य पर्याय को धारण करके नियम से मुक्त होनेवाले हैं । इसलिए अनुभाव की अपेक्षा से उसमें विशेषता हैं१४० । इस के उपरांत उनकी विशेषता का वर्णन करते हुए कथन है कि | १. लोकान्तिक देव लघुकर्मी और विषय से रहित होने से 'देवर्षि' कहलाते हैं। २. ये परस्पर छोटे-बड़े न होने से 'स्वतंत्र' भी होते हैं । ३. तीर्थंकर परमात्मा की दीक्षा का अर्थात् गृहत्याग-निष्क्रमण का अवसर जानकर
वे यहाँ तिरच्छालोक में आते है । और तीर्थंकर बनने वाली आत्मा के पास जाकर 'बुज्झह', 'बुज्झह' - (हे भगवान् ! बोध पाओ, बोध पाओ ।) तीर्थ को प्रवर्ताओ-ऐसे शब्दों से परमात्मा को दीक्षा का अवसर याद करवाने के
अपने आचार का पालन करते हैं ।१४१ ।। लोकान्तिक देव :
___ स्थानाङ्गसूत्र की वृत्ति४२ में श्री अभयदेवसूरिजी ने भविष्य में भूत का उपचार करके लोकान्तिक देवो की एक सुंदर व्याख्या की है-देवलोक से च्यवन होकर मनुष्य बनकर तुरत मोक्ष में जानेवाले अथवा भविष्य में लोकान्त ऐसे सिद्ध स्थान पर आवास होने से लोकान्तिक देव कहे जाते हैं । स्थान :
सौधर्मादि जो १२ कल्प पूर्व में कहे हैं, उनमें जो पाँचवां कल्प 'ब्रह्मलोक' है, उसमें लोकान्तिक देव रहते है ।१४३
ब्रह्मलोक के अंत में चार दिशा में चार विदिशा में, एक-एक विमान है, मध्य में भी एक विमान हैं । तत्त्वार्थसूत्र में मध्य के विमान का उल्लेख नहीं है, आठ विमानो का उल्लेख है । वहाँ इन लोकान्तिक देवों का निवास स्थान हैं ।
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