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भवनपति और ज्योतिष्क इन दो निकाय के मध्य के आंतरों में रहनेवाले होने से भी उनको 'व्यंतर' कहते हैं ।
बालक की तरह उनका स्वभाव अव्यवस्थित होने से, एक स्थान पर स्थिर या स्थित न रहने से तथा स्वच्छन्दता व स्वतन्त्रता से इधर-उधर गमनागमन करते रहने से भी उनको व्यन्तर कहा जाता है ।
इस प्रकार विविध अर्थ में व्यन्तर शब्द का अर्थ उपलब्ध होता है । इसके पश्चात् अब व्यन्तर देवों के भेद-प्रभेदों का निरूपण करेंगे ।
१. भेद-प्रभेद प्रज्ञापनासूत्र में वाणव्यन्तर देवों के भेदों का उल्लेख किया गया है कि ये आठ प्रकार के होते हैं । ये भेद नामकर्म के विशेष उदय के कारण हैं ।
ये भेद हैं-१) किन्नर, २) किम्पुरूष, ३) महोरग, ४) गन्धर्व, ५) यक्ष, ६) राक्षस, ७) भूत और ८) पिशाच १) किन्नर के दस प्रभेद हैं
१. किन्नर, २. किम्पुरुष, ३. किम्पुरुषोत्तम, ४. किन्नरोत्तम, ५. हृदयंगम, ६. रूपशाली, ७. अनिन्दित, ८. मनोरम, ९. रतिप्रिय और १०. रतिश्रेष्ठ । २) किम्पुरुष के दस प्रभेद हैं
१. पुरुष, २. सत्पुरुष, ३. महापुरुष, ४. पुरुषवृषभ, ५. पुरुषोत्तम, ६. अतिपुरुष, ७. महादेव, ८. मरूत, ९. मेरूप्रभ और १०. यशस्वन्त । ३) महोरग के दस प्रभेद हैं
१. भुजग, २. भोगशाली, ३. महाकाय, ४. अतिकाय, ५. स्कन्धशाली, ६. मनोरम, ७. महावेग, ८. महायक्ष, ९. मेरूकान्त और १०. भास्वन्त । ४) गन्धर्व के बारह प्रभेद हैं
१. हाहा २. हूहू, ३. तुम्बरव, ४. नारद, ५. ऋषिवादिक ६. भूतवादिक, ७. कादम्ब ८. महा-कदम्ब ९. रैवत, १०. विश्वावसु, ११. गीतरति और १२. गीतयश । ५) यक्ष के तेरह प्रभेद हैं
१. पूर्णभद्र, २. माणिभद्र, ३. श्वेतभद्र, ४. हरितभद्र, ५. सुमनोभद्र, ६. व्यतिपातिक भद्र, ७. सुभद्र, ८. सर्वतोभद्र, ९. मनुष्य यक्ष, १०. वनाधिपति, ११. Jain Education International 2010_03
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