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तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच में । २. सनत्कुमारादिक से
स्थावर नहीं होते । ३. बारहवें स्वर्ग से
पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य ४. आनत-प्राणतादि से (बारहवें स्वर्ग के बाद) । नियम से मनुष्य में ही उपजे,
तिर्यंच में नहीं । ५. सौधर्म से नव ग्रैवेयक तक देवों मे से त्रेसठ शलाका पुरुष भी होते है । ६. अनुदिश और अनुत्तर से
तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलभद्र पर
अर्धचक्री नहीं । ७. भवनत्रिक से
त्रेसठ शलाकापुरुष उत्पन्न नहीं होतें हैं। ८. देवपर्याय से (समुच्चय)
सर्व सूक्ष्म में, तैजस काया में, वातकाया में उत्पन्न होते हैं, विकलत्रय में, असंज्ञी में या लब्धि अपर्याप्त में नहीं होते हैं, और भोगभूमि में, देव में तथा नारकी
में भी नहीं होते हैं । देव मरकर देव भी नहीं बनता और नरक में भी नहीं जाता क्योंकि देवगति में जीव तब आता है जब वह शुभ भावों से पुण्योपार्जन करता है । उस स्थिति में पुण्यफल का भोग करके समस्त पुण्यराशि को समाप्त कर देता है । अतः मरकर देव नहीं बन सकता। इसी प्रकार अतीत पापोपार्जन न होने से मरकर वह नरक में भी नहीं जा सकता । इसी प्रकार एकेन्द्रिय विकलत्रय (बेइन्द्रिय-तेइन्द्रिय और चौरेन्द्रिय) में भी नहीं जाता । अतः स्पष्ट है कि वह मनुष्य या तीर्यंच योनि में ही उत्पन्न होता है ।।
३ (ब) देवों के प्रकार विश्व अनंतानंत जीवों का समूह हैं । पांचो ज्ञान से पूर्ण परमात्माने अपने ज्ञान से जीवों को देखा । वह ज्ञान अपने शिष्य-गणधरों को कहा । जीव अपने पुण्य-पाप रूपी कर्मो की अल्पता-प्रधानता के कारण चार गति में रहते है । ये गतियाँ चार है-नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । इन सबसे अधिक, पुण्यराशि देवगति में हैं । सभी देवों के सामान्य लक्षणों और विशिष्ट लक्षणों का परिचय
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