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जैनसंघने मळेलो दिव्यप्रकाश : हितोपदेश
विनयनो शत्रु मान कषाय होवाथी मान कषायनो विजय करनारो आत्मा ज विनयगुणनी प्राप्ति, पालन अने परिवर्धन करी शके छे. “मानादि कषायो संसार- मूळ छे अने उचित स्थानमां करायेलो विनय मोक्षनुं मूळ छे" इत्यादि वातो जणावी छे. (गाथा-२१३ थी २३०) __छठ्ठा परोपकार नामना गुण- वर्णन करतां द्रव्योपकार अने भावोपकार- सुंदर शैलीमा वर्णन कयुं छे. परमोपकारी श्री जिनेश्वरदेवोए द्रव्योपकार अने भावोपकार केवो विशिष्ट प्रकारनो कयों, ते दृष्टांत द्वारा जणाव्युं छे. जो के जड प्रायः वादळ, नदी, वृक्षो, अग्नि, वायु आदि पदार्थो अनेक कष्टो सहन करीने जगत उपर विशिष्ट उपकार करे छे तो पछी चैतन्यगुणवाळा मनुष्ये केवो उपकार करवो जोइए ? आ स्थळमां टीकाकारे पण समाधान करतां जणाव्युं छे के - आ तो कविओनी कल्पना ज छे. वास्तविक रीते तो वादळ वगेरेने जगत उपर उपकार करवानी बुद्धि होती नथी, पण तेमनी ते ते प्रवृत्तिओ तेवा प्रकारना विश्रसा परिणामथी ज थाय छे; परंतु कविओ, ए सर्वनी सुखकारी स्थिति जोईने तेओ जाणे जगत उपर उपकार करता होय तेवी उत्प्रेक्षा करे छे. (गाथा-२३१ थी २६९)
सातमा उचिताचरण गुणनुं वर्णन करतां आठ प्रकारना उचित आचरण बताव्यां छे. १ - मातापिता, २ - भाई, ३ - पत्नी, ४ - पुत्र, ५ - स्वजन, ६ - धर्माचार्य, ७ - नागरिकजनो अने ८ - परतीर्थिओ प्रत्ये केर्बु उचित आचरण करवू जोइए ? - ए वातने छणावट करीने सुंदर रीते समजावी छे. वर्तमानमां ज्यारे उचित आचरण घटी रह्यं छे, त्यारे आ विषय वर्तमानकाळना जीवो माटे घणो ज मार्गदर्शक अने उपकारक नीवडे तेम छे. आथी आ विषयने शांत चित्तथी मननपूर्वक वांचवो जरूरी जणाय छे. उचित आचरण अंगेनी आ वातो श्राद्धविधि तेमज धर्मसंग्रह ग्रंथमां पण लेवामां आवी छे, तेथी आनुं महत्त्व समजी शकाय तेम छे. वधुमां श्राद्धगुणविवरणमां पण ए अंगेनुं विवरण प्राप्त थाय छे. (गाथा-२७० थी ३२०)
आठमा देशादिविरुद्धत्याग नामना गुणना वर्णनमां १ - देशविरुद्ध, २ - राज्यविरुद्ध, ३ - लोकविरुद्ध अने ४ - धर्मविरुद्ध एम चार प्रकारना विरुद्धकार्योनी विगतवार समज आपी छे अने तेना द्वारा थता अहितनुं वर्णन करीने तेनो त्याग करवानो उपदेश आप्यो छे. (गाथा-३२१ थी ३६०)
नवमा आत्मोत्कर्षत्याग नामना गुणनुं वर्णन करतां आत्मोत्कर्षने (अभिमान-आपबडाईने) आधीन थयेला आत्मानी मानसिक अवस्था अने बाह्यव्यवहार वगेरे केवां होय छे, तेथी तेना आत्माने इहलोकमां अने परलोकमां केवू नुकसान थाय छे, ते जणाव्युं छे. “तमे गर्व शानो करो छो ? तमे गर्व करवा जेवं एवं शुं कर्यु छे" ? इत्यादि कह्या बाद जणावे छे के, आत्मोत्कर्ष-दोष आत्माए आदरेली आवश्यकक्रियाओ, वीरासन आदि कायक्लेश, श्रुतज्ञान, शील, तप, जाप आदि धर्मानुष्ठानोने निष्फळ बनावे छे. (गाथा-३६१ थी ३७७)
एक बहु ज सुंदर वात रजु करतां कह्यु छ के - चतुर माणसो ‘आ निंदक छे' एवा कलंकथी बचवा भले परनिंदा न करता होय, पण कुशळतापूर्वक जो तेओ आत्मश्लाघा करता होय तो मानी ज लेवू के
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