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________________ जैनसंघने मळेलो दिव्यप्रकाश : हितोपदेश शास्त्र-विधि उपर खूब भार मूकीने दानगुणनी समाप्ति करी छे. (गाथा-४२ थी १७०) बीजा शीलगुण- वर्णन करतां कह्यु छ के - दानगुण पण शील विना शोभतो नथी, परंतु शील पाळवू घणुं ज दुष्कर छे. जे आत्मा शीलने विशुद्ध भावथी पाळे छे ते आत्मा ज कल्याण साधी शके छे तथा कामनी भयंकरता वर्णवतां लख्यु छ के - शास्त्रनी विचारणा करवानो प्रसंग उभो थाय त्यारे शास्त्रना अभ्यास विनाना आत्माओ पशु जेवा देखाय छे, परंतु कामर्नु आक्रमण आवे त्यारे तो पंडितो अने अपंडितो ए बंनेय पशु जेवा देखाय छे. एक हृदयवेधक रमूज रजु करतां ग्रंथकारश्री जणावे छे के - "बहारना कोई पण आक्रमणो आवे तो लोको बळवान मनुष्यनुं शरण स्वीकारे छे, पण कामनुं आक्रमण आवे तो लोक अबळा (स्त्री)नुं ज शरण स्वीकारे छे. आ केQ अपूर्व आश्चर्य छे !" खेदनी वात तो ए छे के संसार छोडीने वनवास करनारा (संन्यासी आदि) पण कामना प्रबळ पाशमांथी बची शक्या नथी. कामना प्रबळ पाशमाथी जे बचे ते धन्यवादने पात्र छे अने तेना हृदयमां ज चारित्र लक्ष्मी विलास करी शके छे. वीतराग एवा श्री अरिहंतदेवोए स्थापेलो श्रमण प्रधान चतुर्विध संघ खरेखर विराग गुणना प्रतापे विश्वमा शोभी रह्यो छे. (गाथा-१७१ थी १८५) त्रीजा तपगुणनुं वर्णन करतां लख्युं छे के - शीलधर्म पण तो ज पाळी शकाय के जो जीवनमा तपगुण होय, आ तपना छ बाह्य अने छ अभ्यंतर एम बार प्रकार बताव्या छे. शुभ परिणामथी तो अनिकाचित कर्मोनो क्षय थाय छे पण तपर्नु आचरण करवाथी तो निकाचित कर्मोनो पण क्षय थाय छे. तप करवाथी अमंगळो-विनोनो नाश थाय छे, इन्द्रियो, नियंत्रण थाय छे अने देवो पण वश थाय छे तथा आमषधि वगेरे अनेक लब्धिओ प्राप्त थाय छे. आवा अनुपम तपधर्मने श्रीतीर्थंकरदेवोए पोताना जीवनमा आचर्यो छे अने जगतना जीवोने तेनो उपदेश आप्यो छे. आ तपधर्म रागादि भावदोषोनो नाश करनार होवाथी एने आदरपूर्वक जीवनमां जीववो जोइए. (गाथा-१८६ थी १९९) चोथा भावधर्मनुं वर्णन करतां जणाव्युं छे के - भाव विनाना दान, शील अने तप ए त्रणेय कष्टानुष्ठानरूप बने छे अने पशुओना कष्टभोगनी जेम अकाम निर्जरा ज करावे छे. करोडो जन्मोमां करेला तपथी जे कर्मोनो क्षय नथी थतो, ते कर्मोनो क्षय भावधर्म द्वारा क्षणार्ध-अर्धी क्षणमां थाय छे. संसारनुं के मोक्षनु, आश्रवनुं के संवर, मुख्य कारण क्रियाओ नथी पण शुभाशुभ भाव छे इत्यादि जणावीने भावधर्मनो महिमा गायो छे. (गाथा-२०० थी २११) __ पांचमा विनयगुणनुं वर्णन करतां लौकिक अने लोकोत्तर एम बे प्रकारना विनय दर्शावीने लौकिक विनयमां १ - लोकोपचार विनय, २ - भय विनय, ३ - अर्थ विनय अने ४ - काम विनय, सुंदर वर्णन कर्यु छे अने पांच प्रकारना लोकोत्तर विनयमां १ - ज्ञान विनय, २ - दर्शन विनय, ३ - चारित्र विनय, ४ - तप विनय अने ५ - उपचार विनय, सुंदर वर्णन कर्यु छे. शाश्वत सुखना अभिलाषी आत्माओ ज मुख्यतया लोकोत्तर विनयना अधिकारी छे. Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002567
Book TitleHitopadesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrabhanandsuri, Parmanandsuri, Kirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages534
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size11 MB
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