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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
अम्हाणं बालाणं अविवेयपराणं पुन्नरहियाण । होसि परामुहहियओ होऊण पियामहो कहणु ? ॥३७॥ गब्भत्थस्स वि जइ मह जीवियदाणेण अहव जणओऽसि । ता अहुणा कीस? तुमं मुञ्चसि मह एक्कयं बालं ॥३८॥ जह फुरइ जए तिमिरं दिणमणिविरहे चउद्दिसिमिन्ति । तह तुज्झ विणा संपइ रिउसिबिरं किं न पसरेइ ? ॥३९॥ ता ताय मन्तिसत्तम खमसु तुमं मज्झ एक्कमवराहं । आइवराहं तं चिय खमाहरं बिंति मन्तिवरा" ॥४०॥ ता एहि पुरं पाडलिपुत्तं चिरकालपालियं जेण । पुणरवि तिवग्गसाहणपरो जणो होइ एक्कमणो ॥४१॥ "चाणक्को समयन्नू पसन्नचित्तो भणइ निवहुत्तं । मा कुणसु तुमं खेयं सपुन्नसम्पन्नरज्जसिरी ॥४२॥ पुव्वकयसुकयतरुवरफलाणमिह भायणं जणो होइ । परमत्थो एत्थ फुडं निमित्तमेत्तं परो होइ ॥४३॥ ता जइ सुमरसि सच्चं मज्झोवयारं कयन्नुओ होउं । परलोयसाहणे मह हवसु सहाओ महाराय ! ॥४४॥ खामियसव्वजणोहं एक्कमणोऽहं पवन्नसन्नासो । अहिलसियसग्गवासो तिविहेणं चत्तघरवासो" ॥४५॥ चाणक्केण य भणिए वयणे एवम्मि बिन्दसारनिवो । खामित्ता पूइत्ता पुरम्मि जा होइ गन्तुमणो ॥४६।। भणइ सुबन्धुमन्ती ताव इमं देव मंतिरायस्स । चाणक्कस्स करिस्सं महूसवं तुम्ह आणाए ॥४७॥ भवियव्वयावसेणं रन्ना नो लक्खियं मणो तस्स । दिन्नाएसो तो सो करइ सतोसो महापूयं ॥४८॥ पूइत्ता पच्छन्नं धूवं उग्गहिऊण अइबहुयं ।। अंगारो निक्खित्तो करीसमज्झम्मि पावेण ॥४९॥
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