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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६ ताप्यमानो पि कनकपिण्ड इव न मालिन्यमात्मसात्करोति, घृष्यमाणो पि न श्रीखण्डमिव सौरभोद्गारपरिहारमिच्छति, किन्तु वद्धिष्णुधर्मध्यानानुबन्धक्रमेण शुक्लध्यानमवाप्य केवलज्ञानसम्पदङ्गनालिङ्गितमूर्तिर्दिविषदामपि वन्दनीयपादारविन्दो भवति, अङ्गर्षिछात्रवत् । तथाहि
8 चम्पाए नयरीए सत्थत्थसरोरुहाण दिणनाहो ।
आसी कयसज्झाओ कोसियअज्जो उवज्झाओ ॥१॥ विविहाई सत्थाई पढन्ति तस्सन्तिए बहवे सीसा । अंगरिसी सरलमणो रुद्दो खुद्दो सहावेणं ॥२॥ उवज्झाएण वियत्ते आएसे कट्ठभारयाणयणे । अंगरिसी जाइ वणे रुद्दो कीलइ जहिच्छाए ॥३॥ कट्ठभरायणत्थं संज्झासमए वणम्मि सो जन्तो । सहकट्ठभरं पेच्छइ अंगरिसिं संमुहमुविन्तं ॥४॥ चिन्तइ एयस्सुवरि होही अज्झावगो अइपसन्नो । अपसायं मज्ज पुणो पमत्तचित्तस्स काही त्ति ।।५।। एवं अट्टज्झाणो आणिन्ति कट्ठभारयं गरुयं । जोइजसं सम्पेच्छइ थेरि सवडंमुहं इन्ति ॥६॥ रुद्दो रुद्दज्झाणो निहणइ तं खड्डनिक्खियं काउं । गहिऊण कट्ठभारं अज्झावयं अन्तिए पत्तो ॥७॥ निग्घिणकम्मो पावो रुद्दो अज्झावयं भणइ खुद्दो । तुम्ह सो अङ्गरिसिसिस्सो हणिऊण जोइजसं ॥८॥ घेत्तूणं कट्ठभरं एसो सिग्धं समागओ एत्थ । पिच्छह तं खड्डाए पक्खित्तं जइ न पत्तियह ॥९॥ तं सोच्चा दट्ठणं उज्झाओ भणइ अंगरिसिमेवं । हा पाव कहं तुमए किच्चमेयं कयं ? धिट्ठ ! ॥१०॥ इहलोए परलोए इत्थीघाएण पावपंकिल्लो । होइ दुहत्तो सत्तो वुच्चइ कुलफंसणो लोए ॥११॥
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