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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
जं मज्झ समीवम्मि वि पढमाणो सत्थत्थपरमत्थं । एवं वट्टसि पावे ? तं मन्ने तं अभव्वोऽसि ॥१२।। अवसर दिट्ठिपहाओ पाविट्ठ गद्धिदुट्ठ मह इन्हि । पज्जत्तं पढिएणं तुह एवं पावचरियस्स ॥१३॥ दुस्सहमब्भक्खाणं वज्जनिवायं गुणगणगिरिस्स । सोऊणं अंगरिसी झत्ति विलीणो व्व सव्वंगं ॥१४।। खणमेकं निचिट्ठो चिट्ठइ धरणिगओ स मुच्छाए । सीयलसमीरववगयमुच्छो वि चिन्तइ एवं ॥१५॥ "हा जीव कयं तुमए पुव्वभवे जमिह मोहमूढेणं । पावं तं च्चिय उदयं पत्तं दोसं विणा चेव ॥१६॥ ही संसारसहावो जस्सि जीवा वि सुद्धचरिया वि । हुंति अकम्हा निट्ठरअब्भक्खाणेण सकलंका ॥१७॥ किं मज्झ जीविएणं ? नाणगुरूणं पि वज्जणीयस्स । एवं अवज्झपंकोवलेवलित्तस्स मलिणस्स ॥१८।। "अमयस्सन्दिकरो वि हु तावहरो वि हु कलाहि कलिओ वि। 15 जह चन्दो सकलंको खंडिज्जइ किन्हपक्खणं ॥१९॥ अब्भक्खाणेणं पुव्वज्जियपावकम्मजणिएणं । तह झिज्झिस्सामि अहं दिणे दिणे तेयपरिहीणो ॥२०॥ तवतवणकलासाइयवित्तो भुवणं पयासइ कलाहि । सकलंको त्ति भणिज्जइ निसायरो रयणिरमणो वि ॥२१॥ 20 अहवा गुरूवएसा विविहेण तवेण सयलमलहरणे । कल्लाणं चिय कणयं अकुच्छणिज्जं जए होइ ॥२२॥ तम्हा सुगुरूणन्ते पडिवज्जियसव्वसंगविरइरओ। तत्तविचित्ततवेणं अप्पाणं सोहइस्सामि" ॥२३॥ एवं विसुद्धभावो अविहियपावो गुरूण पयमूले । गिण्हइ विहिणा चरणं करेइ विहिणा तवच्चरणं ॥२४॥
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