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जयन्ती प्रकरणवृत्तिः । गाथा ४/५/६
पुव्वभवब्भासेणं उक्कडरागेण मक्कडी एइ । साहुसमीवे दंसइ मयणवियारे बहुपयारे ॥६८॥ गच्छइ सत्थो सा वि य मग्गनिरोहं करेइ साहुस्स । सुहडेहिं भेसविया वित्तत्था दूरमवकन्ता ॥६९॥ तो तमि अरिहमित्ते तद्दिट्ठीए अगोयरं पत्ते । विरहर हंगनिवाए छिन्नप्पाणा मया झत्ति ॥ ७०|| तोऽकामनिज्जरा तहाविहेणं विसुद्धभावेणं । मरिऊण समुप्पन्ना अप्पड्डी वन्तरी देवी ॥७१॥ पुव्वभवे पिच्छन्ती विभंगनाणेण तम्मि मुणिसीहे । गच्छइ पओसमिच्छइ हन्तुं तं मुणिवरं णिच्चं ॥७२॥ अह अप्पजलप्पवहे वहपहे तस्स विहियगइभेए । ती छिन्ना जंघा सज्जइ भद्दाऽवरा देवी ॥७३॥ गामन्तरम्मि भिक्खागयस्स सा अन्नवासरे तस्स । रूवं सरम्मि दंसइ न्हायन्तं अवरसाहूणं ॥ ७४ ॥ सुमरामि अहं क्खलियं न किंचि अलियं भणन्ति न य गुरुणो । चिन्तइ हल्लोहलिओ पावतरू एस किं फलिओ ? ||७६ ॥
कहं होमि अहं सुद्धो ? बुद्धेहिं गुरूहिं गुणसमिद्धेहिं । जो नाओ सपमाओ माई य अलियवाई य ॥७७॥ मन्दरगिरिणा अट्टज्झाणेणं मन्थिए मणसमुद्दे । वाहसलिलप्पवाहो बाहिं बहुडा लुट्ठइ तस्स ॥७८॥ पच्चावायपरद्धा दट्ठूणं तस्स दुक्खदन्दोलि । सापयडिय नियमुत्ति साहइ सव्वं सदुच्चरियं ॥७९॥ ती पडिबोहक करुणारससायरेण तो गुरुणा । उल्लसियसुहालिद्धा पारद्धा देसणा तत्तो ॥ ८० ॥ " रागो कडुयविवागो दुरन्तदुहचक्कघडणसुरुदओ । अदओ तेणक्कन्तो जीवाजीवे विणासेइ ॥८१॥
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