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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६ ता कन्तिमई जम्पइ अज्जाए मा करेह निन्द त्ति ।
पावेण चिय छिप्पह न य अज्जा एरिसं कुणइ ॥१७७॥ अवि य
उग्गमइ रवी पच्छिमदिसाए अवि चलइ मेरुचूला वि । लंघइ मज्जायं सायरो वि अज्जा कुणइ नेवं ॥१७८॥ तेहि वि तो पडिभणियं मा वच्चह साहुणीवसहीए । ता कम्मबन्धभीया ताओ वि न जंति ताण पासम्मि ॥१७९॥ सव्वंगसुन्दरी वि य अज्जा सुद्धा वि एइ न हु गेहे । गुरुकम्मबंधभीआ समाहिणा चिट्ठए किन्तु ॥१८०॥ छट्ठट्ठमाइ उग्गं कुणइ तवं जत्थ होइ सुइभावो । वियसन्ति भावणाओ सुद्धपसवा पाडलाउ व्व ॥१८१॥ "निम्मलसंवरभरिए खीरसमुद्दिव माणसे तीए । जणघणदुवयणे वि हु समइ च्चिय देइ न हु तावं ॥१८२॥ नवचंदकलानिम्मलपव्वज्जाए वि सउणं चक्काणं । जं परितावो तं मह बहुतमदोसाणुभावेण ॥१८३॥ उत्तमकुलम्मि जम्मे चरित्तधम्मे वि कीरमाणम्मि । एसो मे उवहासो अनायहेऊ हाह हूओ ॥१८४॥ चित्तगओ उत्तिन्नो मोरो गिलिऊण हारमविलंबं । चित्तगओ च्चिय चिट्ठइ कहमिह संपच्चओ होइ ? ॥१८५|| कम्मवसगएण वसणं जीवाणं तं पि होइ संसारे । जन्न कहिउं न सहिउं न चेव पच्छाइयं तरइ ॥१८६॥ मह सुव्वयगणिणीए कप्पलयाए पि पायच्छायाए । चिट्ठन्तीए तावो जं जाओ तमिह अच्छरियं ॥१८७।। अहवा मणसुद्धीए सिद्धी जीवाण निच्छयनएण । एवं जाणन्तीए महऽट्टज्झाणस्स को समओ ? ॥१८८।। तो धम्मज्झाणससिमण्डलेण जुन्हाए सुक्कलेसाए । पसमइ तावो सहसा वट्टइ सुकयऽन्नवो तीए ॥१८९।।
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