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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
२४३ किंतु इमं महकम्मं पुव्वभवे कहवि जं मए बद्धं । तमिह वियम्भइ अन्नह कहं ? मए दीसए वियणे ॥१६४॥ एवं सा चिन्तन्ती बीयाए साहूणीए आहुया । गन्तूणं वसहीए पवित्तिणीए कहइ सव्वं ॥१६५।। तीए भणियं अज्जे जन्मन्तरकम्मविलसियं किं पि ।
ता सहियव्वं तुमए अवेइए नत्थि मुक्खु त्ति ॥१६६।। उक्तं च
"सव्वो पुव्वकयाणं कम्माणं पावए फलविवागं । अवराहेसु गुणेसु य निमित्तमित्तं परो होइ" ॥१६७॥[संबो.स./गा.१२०] लोगो खिसं काही तुमए रोसो चेव न कायव्वो । तवनियमे अ जुत्ता विसहिज्ज परीसहं एयं ॥१६८॥ एयं पवित्तिणीए वयणसुहासारिणीए सा सित्ता । होइ सुमणोभिरामा नंदणराइ व्व पल्लविया ॥१६९।। अह दाणं दाऊणं कंतिमई चित्तसालियं एइ । पिच्छइ तत्थ न हारं पडलीमुक्कं गुणाधारं ॥१७०॥ कुणइ य तयणु वियारं कम्मयरेणं हविज्ज गहिओ त्ति । पुच्छामि ताव एए पुट्ठा तो ते इमं बिति ॥१७१॥ अज्जाओ मुत्तूणं न को वि तुह चित्तसालियं पत्तो । तो हक्कइ कम्मकरे का संका ? तुम्ह अज्जाणं ॥१७२॥ भत्तं पि हु दिज्जंतं समग्गलं जाओ नेव गिण्हन्ति । ताओ किं हारेणं अणत्थमूलेण काहिन्ति ? ॥१७३॥ किं ? दुद्धे पुयरया हवन्ति अमए वि किं विसं होइ ? । गंगानईए किं वा कयावि अपवित्ताया होइ ? ॥१७४॥ एवं कन्तिमईए साहिक्खेवं सुणित्तु वयणविहिं । कम्मयरा तुसिणीए मुद्दियवयण व्व चिट्ठन्ति ॥१७५॥ तो विन्नाओ सागरसमुद्ददत्तेहिं हारवुत्तन्तो । तो लग्गा क लहेउं जंपन्तऽञ्जा अणज्ज त्ति ॥१७६॥
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