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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६ तो तेण नहग्गाओ सव्वगनिरक्खणेण तुट्टेण । भुत्तुंतरम्मि सिज्जागएण संखो वणी भणिओ ॥९९।। इह सज्जणेण सद्धि पीई जइ हवइ दिव्वजोएण । तो जम्मे वि न विहडइ सच्चं चिय पत्थरे रेहा ॥१००॥ आलम्बणेण रहिया तहा वि सा वित्थरं न पावेइ । वल्ली वि जओ तरुयरसिहरारोहेण वित्थरइ ॥१०१॥ लावन्नामयसरिया कन्ना सव्वंगसुन्दरी तम्हा । दिज्जउ मह ता गुणनिहिसायरदत्तस्स पुत्तस्स ॥१०२।। संखेण वि जुत्तमिणंति य चिन्तियनेहनिब्भरमणेणं । दिन्ना कन्ना अह वित्थरेण गरुएण परिणीया ॥१०३॥ गन्तूणं ससुरकुले कयवयदियहेहिं सा पुणो पत्ता । नियजणयगिहे अच्छइ सहीहि परिवारिया सुहिया ॥१०४।। अह अन्नया य भत्ता पत्तो पत्तीए आणणनिमित्तं । कयमाइत्थं सव्वं भोयणतंबोलमाइयं ॥१०५॥ तो चित्तसालियाए रइया सिज्जा अइवरमणीया । विहिया तंबोलाइयअच्चब्भुयभोगसामग्गी ॥१०६।। सिज्जागओ य चिट्ठइ देवकुमारो व्व दिव्वसिंगारो । एसो सागरदत्तो भज्जागमणं अहिलसन्तो ॥१०७॥ जावज्जवि न गच्छइ भज्जा सव्वंगसुंदरी ताव । तीए उइयं कम्मं अब्भक्खाणेण जं विहियं ॥१०८॥ अणुरूवपत्तसंपुन्नभोगसामग्गिसंपयं दटुं । वन्तरसुरेण कोऊहलेण तो दंसिओ पुरिसो ॥१०९।। सागरदत्ताभिमुहं पत्ता सव्वंगसुंदरी नत्थि ? । भणिऊण एवं मत्तालंबाओ लहु अवक्वन्तो ॥११०॥ तत्तो सागरदत्तो सोउं दटुं च वयणमवक्कमणं । चिन्तइ एवं कुविओ दुस्सीला मे इमा भज्जा ॥१११॥
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