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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा ४।५।६
बीयपसिणखणेण पुण सेणियनरनाह धम्मज्झाणम्मि । वड्डन्तो सो आसि सिवाभिलासी समसुहासी ॥८५।। सामि ! कहं पुण चित्तं पसन्नचन्दस्स रणरसनिमित्तं ? । धम्मज्झाणवित्तं जेण पवित्तं कयं सहसा ॥८६॥ इय सेणिएण भणिए जम्पइ सामी वि किल रणरंगो । निट्ठियपहरणरासी चिन्तइ कवएण रिउघायं ॥८७॥ सिरताडणग्गहलालसो करेण पुट्ठम्मि मुंडसिरकमले । भवियव्वयावसेणं सुमरइ सो झत्ति अप्पाणं ॥८८।। 'समणो हं किन्तु मए पारद्धं पावकम्मसम्बद्धं । संजमसारविरुद्धं मज्झ मणो जमिह अइकुद्धं ॥८९॥ कोहो जोहो चारित्तरायसंघायघायणरसिल्लो । रुद्दज्झाणनियल्लो पसमिरअइकिन्हलेसिल्लो ॥१०॥ संसारगिम्हहारिसामन्नतवबम्भचन्दणदलाई। हा जीव कोवधूमद्धएण तं दहसि सव्वाइं ॥९१॥ हिययत्थलम्मि करुणावल्ली उवसमरसेण पल्लविया । ही ही पावेण मया सहसा कोवग्गिणा दड्ढा ॥९२॥ दुमुहमुहजन्तनिग्गयदुव्वयणबोलेहिं मह पुरे सहसा । अहह खमापायारो भग्गो चिरपरिचिओ जइ वि ॥९३।। तो मोहरायादप्पिट्ठकोहलोहाइबलसमूहेण । नाणचरणाइरिद्धी धिद्धी गहिया समग्गा वि ॥९४॥ भवजलहिजाणवत्तं मणुयत्तं फलयसुगुणसंजुत्तं । । जं चारित्तविउत्तं न हवइ तं पारगमसक्कं ॥९५।। मह साहुकुञ्जरस्स वि जो जाओ पुत्तबन्धपडिबन्धो । सो चारित्तवधनिबन्धू नाणाविहबन्धहेऊ त्ति" ॥१६॥ एवं दुक्कडगरिहाअग्गिसिहाइ बन्धणं व दुक्कम्मं । सव्वं पि दहइ नरवर ! अहुणोपपन्नं मुणिन्दस्स ॥९७।।
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