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________________ १३३ जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २।३ सो भणइ मुद्धि ! पयणिणि ! सम्मद्दिट्ठी सुदंसणो सिट्ठी । सयलगुणरयणरासी पढमतोसी इहं अत्थि ॥९३॥ तस्संतिए निविट्ठो गोट्टीए सुट्ठ अमियवुट्ठीए । कालं अइक्कमंतो अहं न याणामि तुट्ठीए ॥१४॥ इय तग्गुणकहणेणं परोक्खरागेण तम्मि तह रत्ता । कविला वि जहा अन्नं वनं मन्नइ न सुमिणे वि ॥९४॥ अइ रायाएसेणं कविलो गामन्तरम्मि संपत्तो । तत्तो वियणं नाउं रहसभरुब्भिन्नरोमंचा ॥९५।। कविवहचवला कविला रत्ता उदयंतसूरमुत्ति व्व । एइ सुदंसणसविहे विविहे सवहे विहेऊण ॥१६॥ जंपेइ कविलो तुह मित्तो पाणवल्लहो मज्झ । चिट्ठइ हेल्लोहलिओ सिरवेयणराहुणकंतो ॥९७|| तुम्ह सुदंसण ! दंसणमित्तेण वि होइ तस्स अवसरणे । अक्खयसुहोवलंभो संपइ तो एहि मह गेहे ॥९८॥ इय लडहवाणिविन्नासपासवसओ घरम्मि सो तीए । गच्छइ पुच्छइ अच्छइ पियमित्तो कत्थ सो कविलो ? ॥९९|| रमणीए सयणीए जह गिहमज्झम्मि चिट्ठइ कविलो । तह तं पिच्छसु पविससु जंपइ कविला तो एवं ॥१००। अणुइंतीए तीए मज्झगओ भन्नए इमो तो सो । जोव्वणलच्छि सामिय ! मह सहलं कुणसु तं इण्हि ॥१०१॥ मयणसरसल्लियंगी दुहियाऽहं देवसुंदरसरीर ! । सल्लुद्धरणिमहोसहिकरणिं तं वहसु मह अहुणा ॥१०२॥ तुह संगमे णो जलनिहिउक्कलियाओ वारेसु तं धीर । उवरोहरोहणद्दुममलयायलमेहलाबंध ! ॥१०३॥ इच्चाइ चाडुवयणिधणेण मयणानलो न पज्जलिओ। तस्स वरसीलजलनिहिपसरियलहरीहिं विज्झविओ ॥१०४।। १. हल्लोहलिअ [दे.] शीघ्र, जल्दी पा.स.म. ॥ 15 20 25 Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002561
Book TitleJayantiprakaranvrutti
Original Sutra AuthorMalayprabhsuri
AuthorChandanbalashreeji
PublisherShrutgyan Prasarak Sabha
Publication Year2008
Total Pages462
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size16 MB
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