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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २।३
सो भणइ मुद्धि ! पयणिणि ! सम्मद्दिट्ठी सुदंसणो सिट्ठी । सयलगुणरयणरासी पढमतोसी इहं अत्थि ॥९३॥ तस्संतिए निविट्ठो गोट्टीए सुट्ठ अमियवुट्ठीए । कालं अइक्कमंतो अहं न याणामि तुट्ठीए ॥१४॥ इय तग्गुणकहणेणं परोक्खरागेण तम्मि तह रत्ता । कविला वि जहा अन्नं वनं मन्नइ न सुमिणे वि ॥९४॥ अइ रायाएसेणं कविलो गामन्तरम्मि संपत्तो । तत्तो वियणं नाउं रहसभरुब्भिन्नरोमंचा ॥९५।। कविवहचवला कविला रत्ता उदयंतसूरमुत्ति व्व । एइ सुदंसणसविहे विविहे सवहे विहेऊण ॥१६॥ जंपेइ कविलो तुह मित्तो पाणवल्लहो मज्झ । चिट्ठइ हेल्लोहलिओ सिरवेयणराहुणकंतो ॥९७|| तुम्ह सुदंसण ! दंसणमित्तेण वि होइ तस्स अवसरणे । अक्खयसुहोवलंभो संपइ तो एहि मह गेहे ॥९८॥ इय लडहवाणिविन्नासपासवसओ घरम्मि सो तीए । गच्छइ पुच्छइ अच्छइ पियमित्तो कत्थ सो कविलो ? ॥९९|| रमणीए सयणीए जह गिहमज्झम्मि चिट्ठइ कविलो । तह तं पिच्छसु पविससु जंपइ कविला तो एवं ॥१००। अणुइंतीए तीए मज्झगओ भन्नए इमो तो सो । जोव्वणलच्छि सामिय ! मह सहलं कुणसु तं इण्हि ॥१०१॥ मयणसरसल्लियंगी दुहियाऽहं देवसुंदरसरीर ! । सल्लुद्धरणिमहोसहिकरणिं तं वहसु मह अहुणा ॥१०२॥ तुह संगमे णो जलनिहिउक्कलियाओ वारेसु तं धीर । उवरोहरोहणद्दुममलयायलमेहलाबंध ! ॥१०३॥ इच्चाइ चाडुवयणिधणेण मयणानलो न पज्जलिओ।
तस्स वरसीलजलनिहिपसरियलहरीहिं विज्झविओ ॥१०४।। १. हल्लोहलिअ [दे.] शीघ्र, जल्दी पा.स.म. ॥
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