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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २३
अह माहणो पहाए पइक्खणं कुणइ निच्चकिच्चाई | दीणा दुत्थियाणं दितो करुणाए सो दाणं ॥ ५२ ॥ वासवणे पत्तो निव्वत्तियधम्मकम्मवावारो । बयो रयणीए तहेव उदुइ निसीहम्मि ॥ ५३ ॥ गेहदुवारे गच्छ लहु तणुचितं करेइ जावेसो । पुत्तय ! पच्चभिजाणसि न व त्ति ? केणावि ता भणियं ॥५४॥ तेत्तमहं सम्मं ताय ! न याणामि किंतु तक्केमि । जो मे एवं जंपइ सो मे पूयारिहो को वि ॥५५॥
नियपियरं पि न याणसि पुत्तय ! तं तह सिणिद्धचित्तो वि । अदंसणेण अहवा भिज्जइ पेम्मं जओ भणियं ॥ ५६ ॥
अदंसणेण अइदंसणेण दिट्ठे अणालवण | माणेण पवासेण पंचविहं झिज्झर पेम्मं ॥५७॥ सोऊण तव्वयणं चिंतइ हा एस मज्झ किं जणओ ? | अगईं गउत्ति संपइ इहागओ जंपए एवं ॥ ५८॥
धम्मधुराधवलस्स वि कुंदुज्जलनिक्कलंकसीलस्स | जइ मह पिउणो अगई कस्स गई होज्ज ? अन्नस्स ॥५९ ॥
इय संसयं धरंते तणए जणएण तेण पुण भणियं । अवसाणे मह जायं न समाहिपरव्वसं चित्तं ॥६०॥ तेण निमित्तेण अहं जाओ वंतरसुरेसु किब्बिसिओ । तिसिओ किसिओ छुहिओ पुत्तय ? तुह पासमल्लीणो ॥ ६१ ॥ सम्मं पच्चभिजाणसु गिहदक्खिणकोणनिहिअहिन्नाणा | हक्कारसु नियजणणि बंधवपमुहं कुटुंबं पि ॥ ६२ ॥ आहूय आगयाणं ताणं स करेइ उचियमालावं । रणरणयपरिग्गहिओ तो पुतो विन्नवइ एवं ॥ ६३॥ तं पत्तं तं तित्थं जाणावसु ताय जस्स वियरेमि । दाणं सुगनियाणं गिहसव्वस्सोवउगेण ॥६४॥
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