________________
जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २ । ३
इइ निक्कारणकरुणारससायरमुणिवरेण सा वृत्ता । अमियरसेणेव सित्ता सरभसचित्ता समुट्ठेइ ॥ २५३॥ तावसदंसियमग्गा तत्तो साणंगसुंदरी सिग्घं । आसमपयम्मि गंतुं कुलवइणो वंदए पाए ॥ २५४॥
पुत्ति तुमं अविओगिणि! पावसु हियइच्छियाई सोक्खाई । इय आसीससुहाए तेणेसा सुमणसा विहि ॥ २५५॥ भूसन्नाणुन्नाया सा गुरुणा तेण सुप्पसन्नेण । कुसविट्ठरे निसन्ना तव्वयणायन्नणेक्कमणा ||२५६॥ अणुसट्ठिमिक्खुलट्ठि मिट्ठ अह देइ कुलवई तीए । पियविरहदावदाहो जीए सहसा पसममेइ ॥ २५७॥
"रायकुलयासि वच्छे ! न तए जाणिज्जए कहं एयं ? | चंदस्स कलाहाणी जह वुड्डी होइ तहा चेव ॥ २५८॥ भूरिगुणाणं तुम्हारिसीण जं एस दइवसुन्नारो । पुत्ति ! पयच्छइ तावं तं गुरुकल्लाणकज्जेण ॥२५९॥ रोद्दो च्चिय एस भवो भणिज्जए सव्वसत्थकुसलेहि । धम्मज्झाणं झायसु जेण सिवो होइ सो सोमो || २६०|| परिहरसु पुत्ति ! सोयं होइ कुलीणाण जेण मज्झम्मि | अणुरत्तपत्तजोगो निच्चमसोयाण भवरन्ने ॥२६१॥ कयसुकयसयसहाओ तणुअंगोवंगलक्खणगुणेणं । तुह भत्ता वि य जीवइ नज्जइ सविसेससिरिलाहो ॥२६२॥ जीवंतेणं चिय धम्मकोडिदिढबंधबंधुरत्तेण । इहपरलोयपसिद्धी सव्वं किज्जिस्सए तेण" ॥२६३॥ इच्चाइ देसणाए सम्मं पडिबोहिऊण कुलवइणा । किच्छेण पाणवित्तिं फलेहिं काराविया तत्तो ॥ २६४ ॥ इयऽणंगसुंदरी सा भमरीण सिरीण वासभवणेसु । कुलवइपयपउमेसुं लीणा सिरिभायणं होही ॥२६५॥
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
१०५
5
10
15
20
25
www.jainelibrary.org