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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २ । ३
जुव्वणपवणपणुल्लियपरिसुक्कपलासलहुयरमणेण । सुन्नम्म परिज्जंतं मह कोउयरेणुकलुसेणं ॥ २१४॥ पियराणं अवरावरमणोरहुल्लाससायरगयाणं । पडिकूलगेण न मए पोएण वि होइ नित्थारो ॥ २१५ ॥ इय चिंताभरमंदरमंथिज्जंतम्मि मणसमुद्दम्मि | बाहिं बाहजलं बहु पलुट्टए वीरभद्दस्स ॥ २१६ ॥ तोऽगसुंदरी तं तयवत्थं पेच्छिऊण नियदइयं । पुच्छइ ससंकवयणा ससंकहियया असुहहेउं ॥ २१७|| अह भइ वीरभद्दो भद्दे ! पियराण नेहलमणाण । विरहेण महीमंडलपरिभमणपरिस्समो हेऊ ॥२१८॥ ता ती तब्भावे कहिए जणयाण पोयसामग्गी । तुं झत्ति पुरी कारविया तामलित्तीए ॥ २१९ ॥ पवणजवेणं पोए चलिए रयणायरो वि जलरासी । उक्कलियाहि कलिओ दीसइ पयलंतबहुसत्तो ॥ २२०॥ पोउवलंभसहिओ सुहिओ को होज्ज ? मज्झ जणओ व्व । दीवदियंतरगमणे संसारे सायरागारे ||२२१|| पोएणऽणंगसुंदरिसंजोओ अक्खएणं जइ कहवि । मज्झ जणयाण होही कुलुन्नई ता फुडं होही ॥२२२॥ किं पुण धन्नाण चिय निविग्घमणोरहाण संपत्ती । तिन्नजलहीए जीए जगईए गम्मए ठाणं ॥२२३॥ अन्नं च
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'अन्नह परिचिंतिज्जइ कज्जं परिणमइ अन्नहा चेव । विहिविलसियाण जेणं विसमगई होइ दुल्लक्खा" ॥२२४॥ [
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इय वीरभद्दभणिए अवस्सभवियव्वयाणुभावेण । घणदुद्दिणदुप्पिच्छं सहसा गयणंगणं जायं ॥२२५॥ वीईणं वुड्ढी समीरलहरीण पाडिसिद्धिए । मज्जति कूवखंभा विहडंति ममोरहारंभा ॥ २२६ ॥
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