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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २१३
नेहपरवसहियया रायसुयाणंगसुंदरी तत्तो । भणइ अणुरूवपिययमसंजोगो दुल्लहो होइ || १७५|| वीरमई तो जंपइ रभसवसुल्लसियबहपुलियंगी । सिद्धं चिय मह कज्जं मन्नन्ती पुन्नमाहप्पा ||१७६ || जइ होइ अम्हसरिसो पुरिसो दच्छो पहाए पडिहत्थो । को किं तुम्ह मणोरहरहं गमित्तो सहि ! हविज्जा ? ॥ १७७॥ बाहसलिलुल्लनयणं कुमरी सोऊण वीरमइवयणं । जंपइ कत्तो अम्हं इत्तियमित्तानं पुन्नाई ॥ १७८॥
जइ एवं ता किज्जउ सुपसाओ अत्थि किं पि वत्तव्वं । वियणम्मि सामिणीए पुरओ विन्नवइ वीरमई ॥ १७९ ॥ भूसन्ना वियणे कयम्मि तो तेण वीरभद्देण । मुहगुडियाए दंसणपुरस्सरं पयडिओ अप्पा ॥ १८० ॥ अइसाइरूवदंसणविम्हयवियसंतलोयणा कुमरी । तं भइ कामदेवो तं सि सुराईहिं कयसेवो ॥१८२॥ जो देवि ! तर निसुओ पडिवन्नो संखसिट्ठिणा पुत्तो । सोऽहं तु गुणसवणे समागओ वीरभद्दोऽम्हि ॥१८२॥ इइ तव्वयणायन्नणसंतोसरसेण सित्तसुहबीए । हिययत्थलम्मि तीए नेहतरुपसरिओ सहसा ॥१८३॥ मज्झ सुमनोभिरामे देहारामे फलोवभोगेण । सुहय ! लहुं लहसु सुहं इय जंपइ तणयु कुमरी वि ॥ १८४ ॥ इत्ते स गिगओ सेट्ठि विन्नवइ वीरभद्दो वि । तुह पुत्तस्स नरिंदो जइ वियरइ नियसुयं कहवि ॥१८५॥ तो ताय गउरवेणं पडिच्छियव्वा तए अवस्सं सा । रयणायरपुत्तीए दिज्जइ अग्घंजली जेण ॥ १८६॥ माइ वरो मह इट्ठो सुम्म जो संखसिट्टीणो पुत्तो इयाऽगसुंदरीए निवेइयं निययजणणी ॥ १८७॥
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