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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २।३ तो भणइ संखसेट्ठी सोम ! तुमं सव्वया वि पुन्नकलो । तह कुणसु पायपसरं अखंडवित्तो जहा होसि ॥१६२॥ अह भणइ वीरभद्दो जणयं प्पणयप्पहाणवयणेहिं । जं आगम्मिस्सभद्दो पुव्वभवोवज्जियसुहेहिं ॥१६३।। ताय ! तुह संखधवले भवे जहा होइ दिव्ववन्नेहिं । सयलजणचित्तहरणं वित्तं तहऽहं जइस्सामि ॥१६४॥ ता बीयदिणे कन्नतेउरपत्तेण तेण वेसेण । अब्भसन्ती दिट्ठा चित्तकलं तेण सा हिट्ठा ॥१६५।। सागयवयणाणंदियमणेण दिन्नासणोवविद्वेण । तोऽणेण वीरमइणा विस्संभेणं इमं वुत्तं ॥१६६।। जा चित्तवट्टियाए हंसी लिहिया तए सचित्ताए । सा नो विरहावत्थाऽहिणयं सम्मं धरइ देवि ! ॥१६७।। अह सा कुमरी अप्पइ हत्थे तं चित्तवट्टियं तीए । पत्थुयवत्थाहिणयं वयंसि ! हंसि पयंसेसु ॥१६८।। बाहजलुल्लियनयणं दरनिवडिरपउमनालवयणं च । वीरमई वि य विलिहइ हंसिं किसरुडिरपक्खं व ॥१६९।। इय निच्चं अवरावरकलोवओगेण सोममुत्तीए । कुमरीनेहो सलिलनिहि व्व वड्दए अहियं ॥१७०॥ वीरमई अन्नदिणे कुमरिं पुच्छइ वियड्ढवयणेहि । हुति गईओ दु च्चिय उत्तमजीवाण मणुयत्ते ॥१७१।। लभ्रूणं अच्चब्भूयरूवारोग्गाइयाण सामग्गि। तारुन्ने तवचरणं करिज्ज भोगोवभोगं वा ॥१७२॥ तदुभयविरहेण पुणो दिवसा जे जंति निप्फला देवि ! । ते नइनीराइं इव पच्चागच्छंति न कयावि ॥१७३।। ता कहह किमिह ? कारणमहलाणि दिनानि जेण वच्चंति । जमिह कलाकुसलाणं अनिमित्ता होइ न पवित्ती ॥१७४॥ ..
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