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जयन्तीप्रकरणवृत्तिः । गाथा २।३ हिययट्ठिअपरमपओ अक्खोहो सागरो व्व गंभीरो । किंतु नं रुदावत्तो उक्कलियाहिं न उण पत्तो ॥१००६।। विणयोवयारनिरओ विरओ सव्वाण पावट्ठाणाण । गिन्हइ दुविहं सिक्खं दक्खं व मन्नतो ॥१००७।। आयासे अठविओ वि हु अपक्खवाई वि विहरइ दिसासु ।
विणयंगओ विराओ अक्खलियचरणो विविहवन्नो ॥१००८॥ भणियं च
"एस अखंडियसीलो बहुस्सुओ एस एस सुपसन्नो । एसो उ गुणनिहाणं धन्नस्साघोसणा भमइ" ॥१००९॥[ ] मेहकुमारमुणिंदो सज्झायज्झाणनिज्झरगिरिंदो । सावयसेवियपाओ जइ वि मएहिं कयच्चाओ ॥१०१०॥ समिईसुं कयकरणो गुत्तीसु य लद्धलक्खकोडी वि । रायरिसी सो पालइ संजमरज्जं अकिंचणओ ॥१०११।। उग्गतवेणं तविए मेहकुमारम्मि मलविमुक्कम्मि । विप्फुरइ तेयरासी विसुद्धतवणिज्जपुंजि व्व ॥१०१२॥ तवचरणसोसियंगो मेहमुर्णिदो कमेण तणुगत्तो । आसइ भासइ गच्छइ आगच्छइ जीवजीवेण" ||१०१३।। अह वंदिऊण विहिणा रायरिसी विन्नवइ जिणं वीरं । अहमुत्तमट्ठकप्पं काहं तुब्भेहिं अणुन्नाओ ॥१०१४।। "मेहमुणिंद ! महायस सेणियगुत्तम्मि तं सि अवयंसो । निहणियमोहगइंदो निक्खंतो सीहवित्तीए ॥१०१५।। गुरुगच्छगहणवासे पडिपयमेणाण दलणलीलाए । संवेगट्ठवियचरणो सीहु च्चिय विहरिओ धीर ! ॥१०१६।। भूयपिसायगहेहिं उवसग्गपरीसहेहिं अक्खलिओ । आसन्नसिद्धिलाहो तं संसारे मसाणम्मि ॥१०१७॥ हुज्ज मणोरहो तुह अक्खलियगुणरासि ! अक्खयसंवेगो । मइसुयसत्तिनिउत्तो रहु व्व आराहणामग्गे" ॥१०१८।।
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