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________________ ध्यानशतकम् २९४ स्थिरीभूयावीचारं गुणद्रव्यपर्यायपरावर्त्तनं न शुक्लध्यानवैश्वानरनिर्दग्धवातिकर्मेन्धन... स करोति यत्तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञे क्षीणकषाय- यदान्तर्मुहूर्तशेषायुष्क... तदा सर्वं वाङ्मनसयोगं गुणस्थानसम्भवं द्वितीयं शुक्लध्यानं भण्यते । बादरकाययोगं च परिहाप्य सूक्ष्मकाययोगालम्बन: तेनैव केवलज्ञानोत्पत्तिः इति । निज शुद्धात्म सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानमास्कनन्दितुद्रव्यमें या विकाररहित आत्मसुख अनुभवरूप महतीति ।... समीकृतस्थितिशेषकर्मचतुष्टयः पर्यायमें, या उपाधिरहित स्वसंवेदनगुणमें इन तीनोंमें पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगेन से जिस एक द्रव्य गुण या पर्यायमें प्रवृत्त हो गया सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानं ध्यायति । इस प्रकार और उसीमें वितर्क नामक निजात्मानुभवरूप एकत्ववितर्कशुक्लध्यानरूपी अग्निके द्वारा जिसने चार भावश्रुतके बलसे स्थिर होकर अवीचार अर्थात् घातिया कर्मरूपी इंधनको जला दिया है। ... वह जब द्रव्य-गुण-पर्यायमें परावर्तन नहीं करता वह आयु कर्ममें अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रहता है...तब सब एकत्ववितर्क नामक गुणस्थानमें होनेवाला दूसरा ___ प्रकारके वचन योग, मनोयोग, और बादर काययोगको शुक्लध्यान कहलाता है जो कि केवलज्ञानको त्यागकर सूक्ष्म काययोगका आलम्बन लेकर उत्पत्तिका कारण है। सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यानको स्वीकार करते हैं। परन्तु (७.) सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपातीका स्वरूप जब उनकी सयोगी जिनकी आयु अन्तमुहूर्त शेष रहती है।... तब (समुद्घातके द्वारा) चार कर्मोकी भ. आ./मू./१८८६-१८८७ अवितक्कमवीचारं स्थितिको समान करके अपने पूर्व शरीर प्रमाण होकर सुहुमकिरिय-बंधणं तदियमुक्कं । सुहुमम्मि सूक्ष्मकाययोगके द्वारा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानको कायजोगे भणिदं तं सव्वभावगदं १८८६। स्वीकार करते हैं (रा.वा./९/४४/१/६३५/१), सुहमम्मि कायजोगे वटुंतो केवली तदियसुक्कम् । (ध. १३/५,४, २६/८३-८६/१२), (चा.सा./ झायदि णिरुंभिर्यु जे सुहुमत्तण-कायजोगं पि २०७/३)। ।१८८७। वितर्करहित, अवीचार, सूक्ष्म क्रिया करनेवाले आत्माको होता है। यह ध्यान ध. १३/५,४,२६/८३/२ संपहि तदिय सूक्ष्मकाययोगसे है ।१८८६। प्रवृत्त होता है। त्रिकाल सुक्कज्झाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-क्रिया विषयक पदार्थोको युगपद् प्रगट करनेवाला इस नाम योगः। प्रतिपतितुं शीलं यस्य तत्प्रतिपाति। सूक्ष्म काययोगमें रहनेवाले केवली इस तृतीय तत्प्रतिपक्षः अप्रतिपाति । सूक्ष्मक्रिया योगो शुक्लध्यानके धारक हैं। उस समय सूक्ष्मकाययोगका यस्मिन् तत्सूक्ष्मक्रियम्। सूक्ष्मक्रियं च वे निरोध करते हैं ।१८८७। (भ.आ./मू./२११९), तदप्रतिपाति च सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति ध्यानम्। (ध.१३/५,४,२६/ गा. ७२-७३/८३), (त.सा./ केवलज्ञानेनापसारितश्रुतज्ञानत्वात् तदवितर्कम्। अर्थान्तर-संक्रान्त्यभावात्तदवीचारं व्यञ्जन७/५१-५२). (ज्ञा/४२/५१)। योगसंक्रान्त्यभावाद्वा। कथं तत्संक्रान्त्यभावः । स. सि./९/४४/४५६/८ एवमेकत्ववितर्क- तदवष्टम्भबलेन विना अक्रमेण त्रिकालगोचरा Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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