SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २९३ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् ध. १३/५,४,२६/गा. ६१-६३/७९ जेणेगमेव सवितर्क कहा है ।६२। अर्थ, व्यंजन और योगोंके दव्वं जोगेणेक्केण अण्णदरएण। खीणकसाओ संक्रमका नाम वीचार है। यतः उस विचारके ज्झायइ तेणेयत्तं तगं भणिदं ।६१। जम्हा सुदं अभावसे यह ध्यान अवीचार कहा है ।६३ । विदक्कं जम्हा पुव्वगयअत्थकुसलो य। ज्झायदि (त.सा./७/४८-५०); (क.पा. १/१, १७/३१२/ झाणं एवं सविदक्कं तेण तज्झाणं ।६२। अत्थाण ३४४/१५); (ज्ञा./४२/१३-१९) । २. वंजणाण य जोगाण य संकमो हु विचारो । तस्स जो जीव नौ पदार्थो से किसी एक पदार्थका द्रव्य, अभावेण तग ज्झाणमवीचारमिदि वुत्तं ।६३। गुण और पर्यायके भेदसे ध्यान करता है। इस ध. १३/५,४,२६/८०/१ णवपयत्थेस दव- प्रकार किसी एक योग और एक शब्दके गुण-पज्जयथं दव्व-गुण-पजय-भेदेण ज्झाएदि, आलम्बनसे वहाँ एक द्रव्य, गुण या पर्यायमें अण्णदरजोगेण अण्णदराभिधाणेण य तत्थ मेरुपर्वतके समान निश्चलभावसे अवस्थित चितवाले, एगम्हि दव्वे गुणे पजाए वा मेरुमहियरोव्व असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कर्मस्कन्धोंको गलानेवाले, णिञ्चलभावेण अवट्ठियचित्तस्स असंखेजगुणसेडीए अनन्तगुणहीन श्रेणिक्रमसे कर्मोके अनुरागको शोषित कम्मक्खंधे मालयंतस्स अणंतगुणहीणाए सेडीए करनेवाले और कर्मोकी स्थितियोंको एक योग तथा कम्माणुभागं सोसयंतस्स कम्माणं द्विदीयो एक शब्दके आलम्बनसे प्राप्त हुए ध्यानके बलसे एगजोगएगाभिहाणज्झाणेण धादयंतस्स घात करनेवाले उस जीवका अन्तर्मुहूर्त काल रह अंतोमुत्तमेत्तकालो गच्छति तदो सेसखीण- जाता है। तदनन्तर शेष रहे क्षीणकषायके कालका कसायद्धमेत्तट्ठिदीयो मोत्तूण उवरिमसव्वद्रिदियो प्रमाण स्थितियोंको छोडकर उपरिम सब स्थितियोंकी घेत्तूण उदयादिगुणसेडिसरूवेण रचिय पुणो । उदयादि श्रेणि रूपसे रचना करके पुन: स्थिति विदिखंडएण विणा अधट्ठिदिगलणेण असंखे कण्डक घातके बिना अधःस्थिति गलना आदि ही जगुणसेडीए कम्मक्खंधे धादंतो गच्छदि जाव असंख्यात गुणश्रेणि क्रमसे कर्म स्कन्धोंका घात सोना करता हुआ क्षीणकषायके अन्तिम समयके प्राप्त खीणकसायाचरिमसमए णाणावरणीय होने तक जाता है । वहाँ क्षीणकषायके अन्तिम दंसणावरणीय-अंतराइयाणि विणासेदि। एदेसु समयमें ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायका घात णिद्वेसु केवलणाणी केवलदसणी अणंतवीरियो करके केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, अनन्तवीर्यधारी दाण-लाहु-भोगुवभोगेसु विग्यवजियो होदि त्ति तथा दान-लोभ-भोग व उपभोगके विघ्नसे रहित धेत्तव्यं । १ यतः क्षीणकषाय जीव एक ही द्रव्यका होता है। (चा. सा./२०६/३) किसी एक योगके द्वारा ध्यान करता है, इसलिए द्र. सं./टी./४८/२०४/४ निजशुद्धात्मद्रव्ये वा उस ध्यानको एकत्व कहा है ।६१। यतः वितर्कका निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिअर्थ श्रुत है और इसलिए पूर्वगत अर्थ कुशल स्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव साधु इस ध्यानको ध्याता है, इसलिए इस ध्यानको वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy