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________________ परिशिष्टम्-२२, जैनेन्द्रसिद्धांतकोशसंकलितध्यानस्वरूपम् २८९ और दूसरा परमशुक्ल। उसमें भी शुक्लध्यान दो ध्यानज्ञाने लभते योगी परं स्थानम् ।४३। मनप्रकारका है- पृथक्त्ववितर्कविचार दूसरा वचन-काय-मत्सर-ममत्वतनुधनकलादिभिः एकत्ववितर्कअविचार। परमशुक्ल भी दो प्रकार का शून्योऽहम्। इति शून्यध्यानयुक्तः न लिप्यते है- सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और दूसरा समुच्छिन्न- पुण्यपापेन ।४४। शुद्धात्मा तनुमात्र: ज्ञानी क्रियानिवृत्ति। इस समस्त शुक्लध्यानके लक्षण भी चेतनगुणोऽहम् एकोऽहम्। इति ध्याने योगी दो प्रकार है- एक बाह्य दूसरा आध्यात्मिक । प्राप्नोति परमात्मकं स्थानम् ।४५। अभ्यन्तरं (३.) बाह्य व आध्यात्मिक शुक्लध्यानका लक्षण ___ च कृत्वा बहिरर्थसुखानि कुरु शून्यतनुम्। चा. सा./२०३/५ गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहितं निश्चिन्तस्तथा हंसः पुरुषः पुन: केवली भवति जृम्भम्भोद्गारादिवर्जितमनभिव्यक्तप्राणापान ।४७। बहुत कहनेसे क्या? परमार्थ से सालम्बन प्रचारत्वमुच्छिन्नप्राणापानप्रचारत्वमपराजितत्वं ध्यान (धर्मध्यान) को जानकर उसे छोडना चाहिए बाह्यं, तदनुमेयं परेषामात्मनः स्वसंवेद्यमाध्या तथा तत्पश्चात् निरालम्बन ध्यानका अभ्यास करना त्मिकं तदुच्यते। शरीर और नेत्रोंको स्पन्द रहित चाहिए ।३७। प्रथम द्वितीय आदि श्रेणियोंको पार रखना, जंभाई जम्भा उद्गार आदि नहीं होना, करता हुआ वह योगी चरम स्थानमें पहुँचकर प्राणापानका प्रचार व्यक्त न होना अथवा प्राणापानका स्थूलतः शून्य हो जाता है ।३८ । क्योंकि रागादिसे प्रचार नष्ट हो जाना बाह्य शुक्लध्यान है। यह बाह्य मुक्त, मोह रहित, स्वभाव परिणत ज्ञान ही शुक्लध्यान अन्य लोगोंको अनुमानसे जाना जा सकता जिनशासनमें शून्य कहा जाता है।४१। इन्द्रिय है तथा जो केवल आत्माको स्वसंवेदन हो वह विषयोंसे अतीत, मन्त्र, तन्त्र तथा धारणा आदि आध्यात्मिक शुक्लध्यान कहा जाता है। रूप ध्येयोंसे रहित जो आकाश न होते हुए भी आकाशवत् निर्मल है, वह ज्ञानमात्र शून्य कहलाता (४.) शून्यध्यानका लक्षण है।४२। मैं किसीका नहीं, पुत्रादि कोई भी मेरे ज्ञानसार/३७-४७ किं बहुना सालम्बं परमार्थेन नहीं हैं, मैं अकेला हूँ शून्यध्यानके ज्ञानमें योगी ज्ञात्वा। परिहर कुरु पश्चात् ध्यानाभ्यासं इस प्रकारके परम स्थानको प्राप्त करता है ।४३ । निरालम्बम् ।३७। तथा प्रथमं तथा द्वितीयं मन, वचन, काय, मत्सर, ममत्व, शरीर, धनतृतीयं निश्रेणिकायां चरमाना। प्राप्नोति धान्य आदिसे मैं शून्य हूँ इस प्रकारके शून्यध्यानसे समुञ्चयस्थानं तथायोगी स्थूलतः शून्याम् ।३८। युक्त योगी पुण्यपापसे लिप्त नहीं होता ।४४। मैं रागादिभिः वियुक्तं गतमोहं तत्त्वपरिणतं ज्ञानम्। शुद्धात्मा हूँ, शरीर मात्र हूँ, ज्ञानी हूँ, चेतन गुण जिनशासने भणितं शून्यं इदमीदृशं मनुते ॥४१॥ स्वरूप हूँ, एक हूँ, इस प्रकारके ध्यानसे योगी इन्द्रियविषयातीतं अमन्त्रतन्त्र-अध्येय-धारणा परमात्म स्थानको प्राप्त करता है ।४५। अभ्यन्तरको कम् । नभः सदृशमपि न गगनं तत् शून्यं निश्चित करके तथा बाह्य पदार्थों सम्बन्धी सुखों व केवलं ज्ञानम् ।४२। नाहं कस्यापि तनय: न शरीरको शून्य करके हंसरूप पुरुष अर्थात् अत्यन्त कोऽपि मे अस्ति अहं च एकाकी। इति शून्य _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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