SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८८ ध्यानशतकम् होते हैं, जहाँ लेश्या भी शुक्ल होती है उसे शुक्लध्यान प्र. सा./ता. वृ./८/१२ रागादिविकल्परहितकहते हैं ।४८३। स्वसंवेदनज्ञानमागमभाषया शुक्लध्यानम्। रागादि ज्ञा./४२/४ निष्क्रिय करणातीतं ध्यान- विकल्पसे रहित स्वसंवेदनज्ञानको आगमभाषामें धारणवर्जितम्। अन्तर्मुखं च यश्चित्तं तच्छुक्लमिति शुक्लध्यान कहा है। पठ्यते ।४। शुचिगुणयोगाच्छुक्लं कषायरजसः द्र. सं./टी./४८/२०५/३ स्वशुद्धात्मनि क्षयादुपशमाद्वा। वैडूर्यमणिशिखा इव सुनिर्मलं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं शुक्लध्यानम्। निज निष्प्रकम्पं च। १. जो निष्क्रिय व इन्द्रियातीत है। शुद्धात्मामें विकल्परहित समाधिरूप शुक्लध्यान है। 'मैं ध्यान करूं' इस प्रकारके ध्यानकी धारणासे भा. पा. टी./७८/२२६/१८ मलरहितात्मपरिरहित हैं, जिसमें चित् अन्तर्मुख है वह शुक्लध्यान णामोद्भवं शकम। मलरहित आत्माके परिणामको है ।४। २. आत्माके शुचि गुणके सम्बन्धसे इसका शुक्ल कहते हैं। नाम शुक्ल पडा है। कषायरूपी रजके क्षयसे अथवा (२.) शुक्लध्यान के भेद उपशमसे आत्माके सुनिर्मल परिणाम होते हैं, वही भ. आ./मू./१८७८-१८७९ ज्झाणं पुधत्तशुचिगुणका योग है। और वह शुक्लध्यान वैडूर्यमणिकी। सवितक्क सविचारं हवे पढ मसुक्कं । स शिखाके समान सुनिर्मल और निष्कंप है। (त.अनु./ वितक्केकत्तावीचारं ज्झाणं विदियसुक्कं ।१८७८ । २२१-२२२)। सुहुमकिरियं खु तदियं सुक्कज्झाणं जिणेहिं पण्णत्तं द्र. सं/मू./५६ मा चिटुह मा जंपह मा चिन्तह । बेंति चउत्थं सुक्कं जिणा समुच्छिण्ण-किरियं किंविजेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ तु ।१८७९। प्रथम सवितर्कसविचार-शुक्लध्यान, इणमेव परं हवे ज्झाणं ।५६। हे भव्य! कुछ द्वितीय सवितर्ककत्ववीचारशुक्लध्यान, तीसरा भी चेष्टा मत कर,कुछ भी मत बोल, और कुछ सूक्ष्मक्रिया नामक शुक्लध्यान, चौथा समुच्छिन्नक्रिया भी चिन्तवन मत कर, जिससे आत्मा निजात्मामें नामक शुक्लध्यान कहा गया है। (मू.आ./४०४तल्लीन होकर स्थिर हो जावे, आत्मामें लीन होना ४०५); (त. सू./९/३९); (रा.वा./१/७/१४/ ही परम ध्यान है ।५६। ४०/१६); (ध. १३/५,४,२६/७७/१०); (ज्ञा./ नि.सा./ता. वृ./१२३ ध्यानध्येयध्यातृतत्फलादि- ४२/९-११); (द्र. सं/टी./४८/२०३/३)। विविधविकल्पनिर्मुक्तान्तर्मुखाकारनिखिल चा. सा /२०३/४ शुक्लध्यानं द्विविधं, शुक्लं करणग्रामागोचरनिरञ्जननिजपरमतत्त्वाविचल निरञ्जनानजपरमतत्त्वविचल- परम-शुक्लमिति। शुक्लं द्विविधं पृथक्त्वस्थितिरूपशुक्लध्यानम्। ध्यान-ध्येय-ध्याता, ध्यानका वितर्कवीचारमेकत्ववितर्कावीचारमिति। परमशुक्लं फल आदिके विविध विकल्पोंसे विमुक्त द्विविधं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियाअन्तर्मुखाकार, समस्त इन्द्रियसमूहके अगोचर निरंजन निवृत्तिभेदात्। तल्लक्षणं द्विविधं, बाह्यमाध्यनिज परमतत्त्वमें अविचल स्थितिरूप वह त्मिकमिति। शकध्यानके दो भेद है- एक शक्क निश्चयशुक्लध्यान है। (नि.सा./ता.वृ./८९)। _Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy