________________
२१७
te
te
te
परिशिष्टम्-२०, नवतत्त्वसंग्रहगतध्यानस्वरूपम् अथ फलदेव इंद चंद खंद दोनोचर नारविंद पूजन आनंद छंद मंगल पठतुं है नाकनाथ रंभापति नाटक विबुध रति भयो है विमानपति सुख न घटतु है हलधर चक्रधर दाम धाम वाम घर रात दिन सुखभर कालयूं कटतु है जोग धार तप ठये अघ तोर मोख गये सिद्ध विभु तेरी जयनाम यूं रटतुं है १ इति फल । दोनो सुभध्यान धरे पापको न लेस करे ताते दोनो नहीं भये कारण संसार के संवर निज्जर दोय भाव तप दोनो पोय तप सब अघ खोय घोय सब छार के याते दोनो तप भरे जीव निज चित धरे करम अंधारे टारे ग्यानदीप जार के
करम करूर भूर आतम से कीये दूर ध्यान केरे सूरने तो मारे है पछार के १ अथ आतम कर्म ध्यान दृष्टांतकथन
वस्त्र लोह मही वंक मलिन कलंक पंक जलानक सूर नूर सोधन करतु है अंबर ने लोह मही आतमसरूप कही करत कलंक पंक मलिन कहतु है जलानल सूर ध्यान आतम अधिष्टथान जलानल ग्यान भान मानके रहतु है वसनकी मैल झरे लोह केरी कीटी जरे मही केरो पंक हरे उपमा लहतु है जैसे ध्यान धर करी मन वच काय लरी ताप सोस भेद परी ऐसे कर्म कहे है जैसे वैद लंघन विरेचन उषध कर ऐसे जिनवैद विभुरीत परठहे है तप ताप तप सोस तप ही उषध जोस ध्यान भयो तपको स रोग दूर थहे है ए ही उपमान ग्यान तपरूप भयो ध्यान मार किर पान भान केवलको लहे है १ जैसे चिर संचि एध अगन भसम करे तैसे ध्यान छाररूप करत कर्मको जैसे वात आमवृंद छिनमे उडाय डारे तैसे ध्यान ढाह डारे कर्मरूप हर्मको जब मन ध्यान करे मानसीन पीर करे तनको न दुख धरे धरे निज सर्मको मनमे जो मोख वसी जग केरी तो [?] रसी आतमसरूप लसी धार ध्यान मर्मको १ अथ ध्यानसमाप्ति सवईया इकतीसा
पूज जो खमाश्रमण जिनभद्र गणि विभु दूषण अंधारे वीच दीप जो कहायो है सत सात अधिक जो गाथाबद्धरूप करी ध्यान को सरूप भरी सतक सुहायो है टीका नीका सुखजीका भेदने प्रभेद धीका तुच्छ मति भये नीका पठन करायो है लेसरूप भाव धरी छंद बंध रूप करी आतम आनंद भरी वा लख्या लगायो है ।।१।।
इति श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितध्यानशतकात् ।
Jain Education International 2010_02
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org