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भेदज्ञान वैराग्य प्रभावे, ते छोडे गृहवास जी; निजरत्नत्रय सौख्य आराधे, मूकी दुष्ट परआस जी । गुण गा० ९
संज्वलना चोकडी प्रभावे, न लहे श्रेणिनो ठाण जी;
तीने समकित सत्तम गुण लगे, ध्यावे धर्म सुजाण जी । गुण गा० १०
रागादिक सहू रोग विसाणे, जीपे इंद्री चित्त जी;
भवदुःख वारे ज्ञान सुधारे, मुक्तिस्त्रीनो मित्त जी । गुण गा० ११
मोह भंजी आतमगुण रंजी, निजपरभेदनो कार जी;
पोडी सम शिवमंदिर चढतां धर्मध्यान तिण धार जी । गुण गा० १२
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ध्यानशतकम्
[दुहा]
विगलेंद्री अक्रिय छे, ध्यान धारणा हीन; ज्ञाता मुनि चउविधि धरे, शुक्लज्ञान गुणपीन । १ त्रय चोकडी कषायनी, क्षय अथवा उपशांत; प्रथम दोय छद्मस्थने, केवलिने दोय अंत । २ पृथकत्त्ववितर्क विचारयुत, प्रथम शुक्ल ते ध्यान; एक वितर्क विचारविणु, बीय शुक्ल शिव थान । ३ शुद्ध नाम तीन शुक्लरो, सूक्ष्मक्रिया प्रतिपात; शुद्ध साध्य शिवपद रमे, उछिंनै क्रिय बात । ४ जेथ विचारे भिन्नता, ते सविचारवितर्क; निश्चय इक निज आत्मा, जाण्या ए वितर्क । ५ व्यंजन व्यंजन अंतरे, अर्थांतरमे अर्थ; योगादिक योगांतरे, संक्रम करण समर्थ । ६ शुद्ध द्रव्य गुणने स्मरे, ध्यानी विगतकषाय; तीन योग दमि तीनी गुण, साधे पहिलै पाय । ७ प्रथम शुक्ल परभावथी, मुनिवर विगत अपाय; केइ कर्मने उपशमे, किणहिरा क्षय जाय । ८ सात प्रकृतिने उपशमे, उपशम समकित थाय; चउत्थे छे अट्ठम थकी, उपशम श्रेणि चढाय । ९ सत्तायै तितली रही, उधय उपशम मोह; केइ पडे भवने क्षये, के अद्धा क्षय लोह । १०
[ ढाल - सफल संसार अवतार ए हुं गिणुं. एहनी]
ध्यान निज आत्मा सिद्धसम ध्याईये, धोइये कर्ममल नित्य सुखपाईये;
दर्शन मोह त्रय चोकडी प्रथमनी. एह शम उपशम्यां ज्योति उपशम्मनी । १
पछै बीय चोकडीबले तिय चोकडी, उपशम्यां प्रकृति इम तासु पनरह झडी; पछै हास्यादि छ उपशमै तेहने । २
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प्रथम द्वय वेदनै तेह मुनिवर वमै, पछै उदयागत वेद तसु उपशमै;
उपशमै नवमगुण संज्वलत्रिक तिहां, दशम गुण सुहम पिण लोभ उपशमै जिहां । ३
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