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परिशिष्टम्-१९, ध्यानदीपिकाचतुष्पदी
२०१ खण्ड-६
[दुहा] उपशम धरी हरी दोष सहू, आदरी आत्मस्वभाव; कर्मकोटि दुखने कटे, एहिज छे शिव दाव । १ राग द्वेष हणि थीर करे, मुनि आतमपरिणाम; अनुप्रेक्षा फल धारिने, कहूं तास गुणग्राम । २ दीप हणे जिम तम भणी, तिम मुनि दाहे कर्म; मुनि मन चंचलता रहै, रागद्वेषने भर्म । ३ प्रथम संघयणी दृढ बली, शुक्लध्याननै योग; छेद्यो भेद्यो पिण जिको, न लहै कंप न सोग । ४ न सुणै देखे न न कहै, मूर्तिलेपसम तेह; निस्संगी निश्चल यति, शुक्लध्याननी गेह । ५ बहिरंतर समवायविणु, न सधै ध्यानसमाधि; जडपर तन्मयता तजी, शुद्धातम आराधि । ६
ढाल-१ - राग - रामे सीता खबर करी. एहनी] बहिरातम ममता तजी प्राणी, अंतर आतम रुप जी; मन थिरता करी ध्यान ध्येय विधि, शुद्धातमनो भूप जी । गुण गावो० १ जिम शुद्धातमपद ध्यावो रे, जिम निरमल शिवपद पावो रे ।। ए आंकणी० गुण असंख इक समय वधारे, कर्म असंख गमाय जी; उपशम श्रेणे उपशम पामे, क्षय कीना क्षय जाय जी । गुण गा० २ धर्मध्यान थिति अंतर महूरत, मिश्रभाव शुक्ल लेश जी; धरी विवेक उपशम धर ध्यानी, परमातम सुख देश जी । गुण गा० ३ ध्यान विषे जो छोडे भव्य तनु, पामे ते सुरलोक जी; सर्वारथसिद्ध नव ग्रैवेके, पामे सुख अशोक जी । गुण गा० ४ सुमनस मालसहित वलिलांछन, शशीसम निर्मलवाय जी; वीरजबंध सहित कामच्युत, भोगवे सुरसुख पाय जी । गुण गा० ५ ग्रैवेयक अनुत्तरवासि सुर, अति उदार सुख सोध जी; वधती पुण्यपरंपर नित नित, ज्युं वारिधि शशि बोध जी । गुण गा० ६ सुरसुखथी असंख्यातगुणो छे, कल्पातीतने थान जी; काल न जाणे भवनो जातो, इंद्रीसुख अनुमान जी । गुण गा० ७ तिहांथी चवीने मानवभवमे, लहे उत्तम कुल जाति जी; तनु नीरोग सुभोग संयोगे, वधते सुख मन खंति जी । गुण गा० ८
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