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ध्यानशतकम्
हारे० नारी मनचलकारणी, वली, नपुंसक गेह मोरा लाल; नीच करम कर गेहमे, 'न रहे ध्यानी जेह मोरा लाल । भावो० ९ हारे० मोह क्षोभ मनने करे, अस्थि रुधिर हुवे जेथी मोरा लाल; भीमशब्द जीहां जीवना, ध्यानी न रहे तेथी मोरा लाल । भावो. १० हारे० ध्यानध्वंसना जगतमे, जिके कारण जाणि मोरा लाल; ते निश्चयस्युं मुनि तजे, देवचंद्रजी वाणि मोरा लाल । भावो० ११
[दुहा] शेजादिक तीर्थ शीर, वली कल्याणक ठाम; सागर गिर वन गव्वरे, नदी तीर गढ धाम । १ तरु कोटर उद्यानमे, गुहागर्भ समशान; जिनगृह आदिक थानके, मुनि आरंभे ध्यान । २ गतकोलाहल मन करी, निरुपद्रव सुख थान; भुंहर मंडप शून्य गृह, मुनि आरंभे ध्यान । ३ घन तप वायु तुषारथी, जिण थानक नहि हाण; जिहां नव घरे रागादि नित, मुनि आरंभे ध्यान । ४ काष्ट शिला भूपट्ट परि, आसन मंडे साधु; वज्र वीर पर्यंक तिम, कायोत्सर्ग अगाधु । ५ जिन आसन मन थिर रहे, तेही ज आसन सार; काउसग पर्यंक दो, आसन पंचम आर । ६ प्रथम संघयणी निर्भयी, थिर आसन मतिधीर; शुद्धध्यान धरि आपणो, सिद्ध लहे मुनिवीर । ७ नवि चाले स्वभावथी, आय मिल्यां अति दुख; सहे परिषह संवरी, निज आतम सनमुख । ८ हरि अहि हाथी असुर भय, भूमि भ्रमण विधान; चक्र शूल दूख उपना, धीर न छोडे ध्यान । ९ निज धीरजथी मुनि भणी, भय नवि थाये कोय; निर्विषयी संवेग धर,निज निज ध्यानी सोय । १०
[ढाल-४ - राग - सीता अतिसोहे... एहनी] थिर मन विघन निवारो, शुद्धातम ज्ञान संभारो हो०
मुनिवर ध्यान धरो १ थान आसन ए थोक, मन वश विण सघला फोक; मुनिवर० थिर निरमल मन धीर, संवेगी ध्यायक वीर हो । मुनिवर० २ बहु जन थानक शस्य, जो एकम थाये वश्य हो; मुनिवर० । सनमुख पूरव उत्तर, ध्यानी छे सइग अंतर । मुनिवर० ३
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