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________________ ध्यानशतकम् १६४ लक्षण चार कह्या एहना, हवे आलंबन चार; तेह कहुं एणे जे ध्याने, चढता होय आधार, गुणवंता० ।।६।। कोपाटोप निवारक उपशम, प्रथम आलंबन होय मान मथन सुकुमालपणुं जे, मनतणुं बीजुं सोय, गुणवंता० ।।७।। दंभ निवारण सरलपणुं जे, ते त्रीजुं गतदोष; लोह झोह संक्षोह विदारण, चोथु जाण संतोष, गुणवंता० ।।८।। आलंबन इम कह्या शुक्लना, सयल दुरित तरुदाव; भाव कहे हवे कहुं एहनी, भावनाभवजलनाव, गुणवंता० ।।९।। - इति शुक्लध्यानलक्षणाऽऽलम्बनस्वरूपम् । [ढाल-८,राग-केदारो । कपूर होये निरमलं रे... ए देशी] आदि नहि संसारनी रे, छेहडो पण नवि जोय, कर्म प्रेयों जीवडो रे; तिहां बहु रडवडे सोय, सोभागी भावो भावना चार रसाल. जे पोषे शुभ ध्यानने रे, जिम जननी निज बाल. सोभागी० ।।१।। भमतो एह संसारमा रे, जीव-अनंतीवार; नर-तिरि-नारक देवता रे, पाम्यो बहु अवतार, सोभागी० ।।२।। जाति योनि जगते नथी रे, ते नवि लोकप्रदेश; जिहां मुज जीवे मवि लह्या रे, जनम विनाश कलेश, सोभागी० ।।३।। इम भमतो पण जीवडो रे, मूढ न पामे खेद; धरम न साधे निर्मलो रे, जे करे करम विछेद, सोभागी० ।।४।। इम अनंत भव भावना रे, प्रथम कहे अरिहंत; विपरिणामनी भावना रे, बीजी सुण. गुणवंत, सोभागी० ।।५।। पलटाये सवि द्रव्यना रे, जग बहुविध परिणाम; ते सुरवर पण थिर नही रे, जे लवसत्तम नाम, सोभागी० ।।६।। तो बीजा सुरनरतणा रे, सुख संपत्ति परिवार; थिर करी जे मन चिंतवे रे, तेहनी बुद्धि असार, सोभागी० ।।७।। ए कही बीजी भावना रे, त्रीजी ए सुविचार; इम संसार असारता रे, चित्त चिंते अणगार, सोभागी० ।।८।। Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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