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परिशिष्टम्-१८, ध्यानस्वरूपणंप्रबन्धः
१६३ सूक्ष्म किरिया होये तेहमां, न चले शुभ परिणाम; ते माटे तस सूक्ष्म किरिया, अनियट्टी इति नाम रे, मुनिवर० ।।३।। तेरसमे गुणठाणे अंते, एह ध्यान मुनि भावे; चउदसमे गुणठाणे जब पहोंचे, तव तस चोथु आवे रे, मुनिवर० ।।४।। सूक्ष्म पण किरिया नही एहमां, नही एहनो प्रतिपातो; समुछिन्न किरिया अप्रतिपाति, तेह भणी एह विख्यातो रे, मुनिवर० ।।५।। अवर साधुने जे मन थिरता, ते कडुं ध्यान प्रधान; योगनिरोधे जे तनुथिरता, जिनने तेह ज ध्यान रे, मुनिवर० ।।६।। एह ध्यानने अंते मुनिवर, कर्म शेष सवि वारि; छंडी देह जाये लोगंते, थाये शिवसुख धारी रे, मुनिवर० ।।७।। केवलनाणी केवलदर्शी, जेह सदागत मोह; जनम-जरा-मरणादिक नहि तस, नहि तस दुःख संदोह रे, मुनिवर० ।।८।। जिनजीओ पण जगमां जेह, को न कर्तुं उपमान; ते अनंतसुख सिद्ध लहे तिहां, निरुपाधिक असमान रे मुनिवर० ।।९।। अलख निरंजन परम ज्योति वली, परम पुरुष जगदीश; एहवा नाम जपे तस भावे, भावमुनि निशदिश रे, मुनिवर० ।।१०।।
इति शुक्लध्यानतृतीय-चतुर्थप्रकारस्वरूपम् । [ढाल-७, राग - रंगाणी मुज मति तुज गुणे इम जिनराज.... ए देशी] शुकलध्यान तणा संक्षेपे, इम कह्या चार प्रकार; एह ध्यान केरां हवे लक्षण, चार कहुं सुविचार; गुणवंता मुनिवर सेविये, नितु शुभध्यान, करमरोग हरवाने जगमां, जेह छे अमृत समान गुणवंता० ।।१।।
देवादिक उपसर्ग करे तव, नवि बीहे गुणगेह रे; . पीडा पण मन नाणे तेहनी, पहेलुं लक्षण तेह रे, गुणवंता० ।।२।। देवादिकनी माया अथवा, सूक्ष्म भाव संदेह; तस संमोह उपाये न शके, बीजूं लक्षण तेह, गुणवंता० ।।३।। तनुथी अलगो जीव चिंतवे, जीवथी सयल संयोग; शुकलतणुं ए लक्षण त्रीजें, दूर हरे सवि शोग, गुणवंता० ।।४।। अतिनिरागपणे करीने करे, उपधि शरीरनी सार; चोथु एह कह्यु जे न करे, ममता तास लगार, गुणवंता० ।।५।।
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