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________________ १५४ ध्यानशतकम कास श्वास ज्वर शीषक-शूल, खयन नयन पीडा प्रतिकूल; वाय प्रमुख सवि रोग समूल, जाओ वाउलिंमा जिम तुल ।।१२।। औषध वैद्य अने सुरसुरी, मंत्र जंत्रनी सेवा करी । जोगी जंगम सेवी संत, रोगादिकनो आणुं अंत ।।१३।। एणी परे त्रीजुं आरतध्यान, चोथे ध्याये पाप निदान; धर्मतणो जो होय प्रभाव, तो मुज होजो एहवा भाव ।।१४।। राज ऋद्धि रमणी संयोग, वंछे सुरनर खेचर भोग; वासुदेव नरवइ चक्कवइ, पदवी पामुं इम चिंतवइ ।।१५।। एहवा बहुपरे करे नियाण, रयण तजी लहे काच अजाण; भोगादिक हेते श्री धर्म, छंडे मंडे घणा कुकर्म ।।१६ । ए चारे आरतना भेद, एहनां लक्षण पण छे वेद; आणे शोक करे आक्रन्द, रुदन करे वली विलवे मंद ।।१७ ।। एह दुर्ध्यान करतां देह, दुर्बल होए नहि संदेह; एणे ध्याने नासे संवेग, मनमां थाये अतिउद्वेग ।।१८।। एणे ध्याने वाधे आरति, जीव न पामे सुख अधरति; नासे बुद्धिवंतनी बुद्धि, अणे दुर्ध्याने न रहे शुद्धि ।।१९।। एणे दुर्ध्याने ढलके कुंभ, विविध रोगनो होय आरंभ; इम इहलोके दोष अनेक, एहथी थाये सुण सुविवेक ।।२०।। परभव एहथी तिरीयगति, थइ गिरोली जिम संयति; सुंदर-शेठ ने नंद मणियार, लह्या गेह डेडक अवतार ।।२१।। इह-परभव एहथी बहु दोष, जाणी आणी मन संतोष; संपद आपद उपर गुणी, राग दोष मन नाणे मुणी ।।२२।। एहथी पूरव पुन्य विछोह, ते संपद उपर श्यो मोह; । जेहथी पूरव पाप विच्छेद, ते आपद आवे श्यो खेद ।।२३। देखी जग बहु वस्तु उदार, कां तुं चिंता करे अपार; चिंताए व्यापे संताप, न होये चिंतित होये आप ।।२४ ।। ते माटे मन सत्य प्रधान, धारे वारी आरतध्यान भाव कहे जिनवाणी मुदा, सेवो जिम पामो संपदा ।।२५ ।। इति आर्तध्यानस्वरूपम् । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002560
Book TitleDhyanashatakam Part 2
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages350
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size19 MB
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