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________________ ९४ ध्यानशतकम्, तत्त्वानुशासन में शुक्लघ्यान का स्वरूप मात्र निर्दिष्ट किया गया है, उसके भेदों व स्वामियों आदि की कुछ चर्चा नहीं की गई है (२२१-२२) । ज्ञानार्णव में आदिपुराण के समान प्रथम दो शुक्लध्यान छद्मस्थ योगियों के और अन्तिम दो दोषों से निर्मुक्त केवलज्ञानियों के निर्दिष्ट किये गये हैं । ध्यानस्तव में अतिशय विशुद्धि को प्राप्त धर्म्यध्यान को ही शुक्लध्यान कहा गया है जो दोनों श्रेणियों में-उपशमश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय तथा क्षपकश्रेणि के भी इन्हीं तीन गुणस्थानों में होता है (१६) । आगे शुक्लध्यान के चार भेदों का निर्देश करते हुए उनमें पृथक्त्ववितर्क सविचार और एकत्ववितर्क अविचार इन दो शुक्लध्यानों का अस्तित्व क्रम से तीन योगोंवाले ओर एक योगवाले पूर्ववेदी (श्रुतकेवली) के प्रगट किया गया है । तीसरा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान सूक्ष्म शरीर की क्रिया से युक्त सयोग केवली के और चौथा समुच्छिन्नक्रियानिवर्तक शुक्लध्यान समस्त आत्मप्रदेशों की स्थिरता से युक्त अयोग केवली के होता है (१७-२१) । उपसंहार तत्त्वार्थ सूत्र आदि अधिकांश ग्रन्थों में सामान्य से यह निर्देश किया गया है कि चारों प्रकार का आर्तध्यान छठे गुणस्थान तक हो सकता है । परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि कुछ ग्रन्थों में इतना विशेष कहा गया है कि निदान छठे गुणस्थान में नहीं होता । रौद्रध्यान की सम्भावना सर्वत्र पांचवें गुणस्थान तक बतलायी गई है ।* धर्म्यध्यान-तत्त्वार्थसूत्र में भाष्यसम्मत सूत्रपाठ के अनुसार इसका सद्भाव अप्रमत्त, उपशान्तकषाय और क्षीणकषाय के बतलाया गया है । ध्यानशतक में भी लगभग यही अभिप्राय प्रगट किया गया है । टीकाकार हरिभद्रसूरि के स्पष्टीकरण से ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें उसका सद्भाव उपशमश्रेणि तथा क्षपकश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण और सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानों में भी अभीष्ट है । सर्वार्थसिद्धि, तत्त्वार्थवार्तिक और अमितगतिश्रावकाचार में उसका सद्भाव अविरत, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चार गुणस्थानों में स्वीकार किया गया है । धवलाकार उसे असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर सूक्ष्मसाम्पराय तक सात गुणस्थानों में स्वीकार करते हैं । हरिवंशपुराण में उसके स्वामी के सम्बन्ध में 'अप्रमत्तभूमिक' इतना मात्र संकेत किया गया है । उससे यदी अभिप्राय निकाला जा सकता है कि सम्भवतः हरिवंशपुराणकार को उसका अस्तित्व सर्वार्थसिद्धि आदि के समान असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत तक चार गुणस्थानों में अभिप्रेत है । आदिपुराण में उसे आगमपरम्परा के अनुसार सम्यग्दृष्टियों, संयतासंयतों और प्रमत्तसंयतों में स्वीकार कर उसका परम प्रकर्ष अप्रमत्तों में माना गया है । यही अभिप्राय तत्त्वानुशासनकार का भी रहा है । १ छद्मस्थयोगिनामाद्ये द्वे तु शुक्ले प्रकीर्तिते । द्वे त्वन्त्ये क्षीणदोषाणां केवलज्ञानचक्षुषाम् ।। ज्ञाना. ७, पृ. ४३१. * पंचवस्तु वगेरे ग्रंथोमा छट्ठा गुणस्थानकमां पण क्यारेक निरनुबंध स्वल्पकालीन रोद्रध्याननो स्वीकार करायो छे. जुओ गाथा - २३ टिप्पन Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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