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ध्यान के स्वामी
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एकत्ववितर्क- अविचार शुक्लध्यान का ध्याता चौदह, दस अथवा नौ पूर्वो का धारक वज्रर्षभ-वज्रनाराचसंहनन व अन्यतर संस्थानवाला क्षायिकसम्यग्दृष्टि क्षीणकषायकाल होता है । विशेष रूप से यहां उपशान्तकषाय गुणस्थान में एकत्ववितर्क- अवीचार और क्षीणकषायकाल में पृथक्त्ववितर्क- वीचार शुक्लध्यान की भी सम्भावना प्रगट की गई है । सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती नामक तीसरा शुक्लध्यान सूक्ष्म काययोग में वर्तमान केवली केर और चौथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाती शुक्लध्यान योगनिरोध हो जाने पर शैलेश्य अवस्था में*-अयोग केवली के कहा गया है ।
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हरिवंशपुराण में शुक्ल और परमशुक्ल के भेद से शुक्लध्यान दो प्रकार का कहा गया है । इसमें प्रत्येक दो-दो प्रकार का है - पृथक्त्ववितर्क सवीचार व एकत्ववितर्क अवीचार तथा सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती व समुच्छिन्नक्रियानिवर्तक । इनमें प्रथम शुक्लध्यान दोनों श्रेणियों के गुणस्थानों-उपशमश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय व उपशान्तमोह तथा क्षपकश्रेणि के अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय व क्षीणमोह इन गुणस्थानों में होता है । द्वितीय शुक्लध्यान के स्वामी का कुछ स्पष्ट उल्लेख किया गया नहीं दिखा । सम्भवतः उसे सामान्य से पूर्ववेदी - क्षीणमोह के - अथवा योगनिरोध के पूर्व केवली के कहा गया है । केवली जब तीनों बादर योगों को छोडकर सूक्ष्मकाययोग का आलम्बन करते हैं तब वे शुक्ल सामान्य से तृतीय और विशेषरूप से परमशुक्ल की अपेक्षा - प्रथम सूक्ष्मक्रियापतिपाती शुक्लध्यान पर आरूढ होने के योग्य होते है । यह शुक्लध्यान समुद्घात क्रिया के पूर्ण होने तक होता है । तत्पश्चात् द्वितीय परमशुक्ल-समुच्छिन्नक्रियानिवर्ती शुक्लध्यान - आत्मप्रदेशपरिस्पन्दन, योग और प्राणादि कर्मों के विनष्ट हो जाने पर अयोग केवली के होता है ।
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आदिपुराण में भी हरिवंशपुराण के समान शुक्लध्यान के शुक्ल औप परमशुक्ल ये दो भेद निर्दिष्ट किये गये हैं । इनमें छद्मस्थों के उपशान्तमोह और क्षीणमोह के शुक्ल और केवलियों के परमशुक्ल होता है ।
३. धव. पु. १३, पृ. ८३-८६ ।
४. धव. पु. १३, पृ. ८७ ।
५. शुक्लं तत् प्रथमं शुक्लतर- लेश्याबलाश्रयम् । श्रेणीद्वयगुणस्थानं क्षयोपशमभावकम् । ह. पु. ५४-६३ ।
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१. धव. पु. १३, पृ. ७९ ।
२. उवसंतकसायम्मि एयत्तविदक्कावीचारे संते 'उवसंतो दु पुधत्तं' इच्चेपेण विरोहो होदि त्ति णासंकणिज्जं तत्थ पुधत्तमेवेत्ति णियमाभावादो । ण च खीणकसायद्धाए सव्वत्य एयत्तविदक्कावीचारज्झाणमेव, जोगपरावत्तीए एगसमयपरूवणण्णहाणुववत्तिले
तदद्धादीए पुधत्तविदक्कवीचारस्स वि संभवसिद्धीदो । धव. पु. १३, पृ. ८१ ।
६. ह. पु. ५६, ६४-६८ ।
७. अन्तर्मुहूर्तशेषायुः स यदा भवतीश्वरः । तत्तुल्यस्थितिवेद्यादित्रितयश्च तदा पुनः ।।
समस्तं वाङ्मनोयोगं काययोगं च बादरम् । प्रहाप्यालम्ब्य सूक्ष्मं तु काययोगं स्वभावतः ।।
तृतीयं शुक्लं सामान्यात् प्रथमं तु विशेषतः । सूक्ष्मक्रियाप्रतीपाति ध्यानमस्कन्तुमर्हति ।। ह. पु. ५६, ६९-७१ । ८. ह. पु. ५६, ७२-७७ ।
९. शुक्लं परमशुक्लं चेत्याम्नाये तद् द्विधोदितम् । छद्मस्थस्वामिकं पूर्वं परं केवलिनां मतम् ।। आ. पु. २१-१६७ ।
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