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ध्यान के स्वामी
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तत्त्वानुशासन में धर्म्यध्यान के स्वामियों के प्रसंग में प्रथमतः यह निर्देश किया गया है कि तत्त्वार्थ में उसके स्वामी अप्रमत्त, प्रमत्त, देशसंयत और सम्यग्दृष्टि ये चार माने गये हैं । तदनन्तर वहां उक्त धर्म्यध्यान को मुख्य और उपचार के भेद से दो प्रकार का बतलाते हुए यह कहा गया है कि मुख्य धर्म्यध्यान अप्रमत्तों में और औपचारिक इतरो में-सम्यग्दृष्टि, देशसंयत और प्रमत्तसंयतों में होता है । आगे वहां यह भी कहा गया है कि जो मन से स्थिर है वह विकल श्रुत से भी उसका ध्याता होता है तथा प्रबुद्धधी-प्रकृष्ट ज्ञानी-दोनों श्रेणियों के नीचे उसका ध्याता माना गया है । यह आदिपुराण (२१-१०२) का अनुग्रहण है । 'दोनों श्रेणियों के नीचे' इससे क्या अभिप्रेत है, यह स्पष्ट नहीं है । दोनों श्रेणियों से पूर्ववर्तियों के उक्त धर्म्यध्यान के अस्तित्व की सूचना वहां आगे फिर से भी की गई है । ___ अमितगतिश्रावकाचार में उक्त धर्म्यध्यान का सद्भाव सर्वार्थसिद्धि के समान असंयतसम्यग्दृष्टि आदि चार गुणस्थानों में ही निर्दिष्ट किया गया है । ___ ज्ञानार्णव में उसके स्वामियों के प्रसंग में यह कहा गया है कि उसके स्वामी मुख्य और उपचार के भेद से यथायोग्य अप्रमत्त और प्रमत्त ये दो मुनि माने गये है । आगे वहां आदिपुराण और तत्त्वानुशासन के समान यह अभिप्राय प्रकट किया गया है कि सूत्र (आगम) में उसका स्वामी विकल श्रुत से भी युक्त कहा गया है, अधःश्रेणि में प्रवृत्त हुआ जीव धर्म्यध्यान का स्वामी सुना गया है ।
आगे यहां यह भी निर्देश किया गया है कि कुछ आचार्य यथायोग्य हेतु से सम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्त गुणस्थान तक उक्त धर्म्यध्यान के चार स्वामियों को स्वीकार करते है ।
ध्यानस्तव में लगभग आदिपुराण और तत्त्वानुशासन के समान धर्म्यध्यान के स्वामियों का निर्देश करते हुए कहा गया है कि उपशमक और क्षपक श्रेणियों से पहिले अप्रमत्त गुणस्थान में मुख्य धर्म्यध्यान होता
१. 'तत्त्वार्थ' से क्या अभिप्रेत रहा है, यह वहां स्पष्ट नहीं है । स्व. श्री पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार ने उसके भाष्य में 'तत्त्वार्थ'
शब्द से 'तत्त्वार्थवार्तिक' को ग्रहण किया है । पृ. ४९ । २. अप्रमत्तः प्रमत्तश्च सदृष्टिदेशसंयतः । धर्म्यध्यानस्य चत्वारस्तत्वार्थे स्वामिनः स्मृताः ।।४६ ।। ___ मुख्योपचारभेदेन धर्म्यध्यानमिह-द्विधा । अप्रमत्तेषु तन्मुख्यमितरेष्वौपचारिकम् ।।४७ ।। ३. उक्त दोनों ग्रन्थों का वह श्लोक इस प्रकार है -
श्रुतेन विकलेनापि स्याद् ध्याता मुनिसत्तमः । प्रबद्धधीरधःश्रेण्योधर्मध्यानस्य सुश्रुतः ।। आ. पु. २१-१०२ ।।
श्रुतेन विकलेनापि ध्याता स्यान्मनसा स्थिरः । प्रबुद्धधीरधःश्रेण्योर्धर्म्यध्यानस्य सुश्रुतः ।। तत्त्वानु. ५० ।। ४. अत्रेदानीं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्म्यध्यानं पुनः प्राहुः श्रेणिभ्यां प्राग्विवर्तिनाम् ।। तत्त्वानु. ८३।। ५. अनपेतस्य धर्मस्य धर्मतो दशभेदतः । चतुर्थः पंचमः षष्ठः सप्तमश्च प्रवर्तकः ।। १५-१७।। ६. मुख्योपचारभेदेन द्वौ मुनी स्वामिनौ मतौ । अप्रमत्त-प्रमत्ताख्यौ धर्मस्यैतो यथायथम् ।। ज्ञाना. २५, पृ. २८१ ।। ७. श्रुतेन विकलेनापि स्वामी सूत्रे प्रकीर्तितः । अधःश्रेण्यां प्रवृत्तात्मा धर्म्यध्यानस्य सुश्रुतः ।। ज्ञाना. २७, पृ. २८१ ।। ८. किं च कैश्चिच्च धर्मस्य चत्वारः स्वामिनः स्मृता । सदृष्ट्याप्रमत्तान्ता यथायोग्येन हेतुना ।। ज्ञाना. २८, पृ. २८२ ।।
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