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________________ १२६ ध्यानशतकम्, aratamaraarararararakarararararararamatarararararararararararararararate वायुसंचार से सूचित शुभाशुभ की विस्तार से चर्चा की गई है । साथ ही वहां परकायप्रवेश आदि का भी कथन किया गया है । हां, यह अवश्य है कि आ. हेमचन्द्र ने वहां महर्षि पतञ्जलि विरचित योगशास्त्र में निर्दिष्ट उस प्राणायाम का विस्तार से वर्णन करते हुए भी उसे अनावश्यक और अहितकर बतलाया है (६, १-५) । ८ ध्यानशतक में धर्मध्यान के ध्याताओं का उल्लेख करने के अनन्तर यह कहा गया है कि ये ही धर्मध्यान के ध्याता अतिशय प्रशस्त संहनन से युक्त व पूर्वश्रुत के धारण होते हुए पूर्व के दो शुक्लध्यानों के भी ध्याता होते हैं (६३-६४)। योगशास्त्र में इसे कुछ स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि प्रथम संहनन से युक्त पूर्वश्रुत के ज्ञाता शुक्लध्यान के करने में समर्थ होते हैं । कारण यह कि हीन बलवालों का इन विषयों के वशीभूत होने से चूं कि स्थिरता को प्राप्त नहीं होता, इसीलिए वे शुक्लध्यान के अधिकारी नहीं है (११, २-३) लगभग यही अभिप्राय तत्त्वानुशासन (३५-३६) और ज्ञानार्णव में भी प्रगट किया गया है । इस प्रसंग से सम्बन्धित ज्ञानार्णव और योगशास्त्र के श्लोकों की समानता देखने योग्य है चलत्यैवाल्पसत्त्वानां क्रियमाणमपि स्थिरम् । चेतः शरीरिणां शश्वद् विषयैर्व्याकुलीकृतम् ।। ज्ञाना. ५, पृ. ४२५, न स्वामित्वमतः शुक्ले विद्यतेऽत्यल्पचेतसाम् । आद्यसंहननस्यैव तत् प्रणीतं पुरातनैः ।। ज्ञाना. ६, पृ. ४२५ इदमादि (म) संहनता एवालं पूर्ववेदिनः कर्तुम् । स्थिरतां न याति चित्तं कथमपि यत् स्वल्पसत्त्वानाम् ।। धत्ते न खलु स्वास्थ्यं व्याकुलितं तनुमतां मनोविषयैः । शुक्लथ्याने तस्मानास्त्यधिकारोऽल्पसाराणाम् ।। यो. शा. ११, २-३ यहां ज्ञानार्णव में उपयुक्त अत्यल्पचेतसाम्' के समकक्ष जो योगशास्त्र में 'स्वल्पसत्त्वानाम्' पद प्रयुक्त हुआ है वह भाव को अधिक स्पष्ट कर देता है । इस प्रकार ध्यानशतक के साथ योगशास्त्र की समानता व असमानता को देखकर यह निश्चित प्रतीत होता है कि आ. हेमचन्द्र ने उस ध्यानशतक को हृदयंगम करके उससे यथेच्छ विषय को ग्रहण किया है और उसका उपयोग अपनी रूचि के अनुसार योगशास्त्र की रचना में किया है । पर विषयविवेचन की शैली उनकी ध्यानशतककार से भिन्न रही है । - x १. ज्ञानार्णव में भी उस प्राणायाम का विस्तार से वर्णन करते हुए (श्लोक १-१०२, पृ. २८४-३०३) भी उसे अनिष्टकर सूचित किया गया है (श्लोक १००, पृ. ३०२ व व श्लोक ४-६, पृ. ३०५ । Jain Education International 2010_02 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002559
Book TitleDhyanashatakam Part 1
Original Sutra AuthorJinbhadragani Kshamashraman, Haribhadrasuri
AuthorKirtiyashsuri
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2009
Total Pages302
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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